Monday, March 3, 2014

आत्मदर्शन !

28 वर्षों की नौकरी के दरम्यान मैं इतना व्यस्त था कि मुझे वर्क-अल्कोहोलिक कहा जाने लगा. तभी 1997 में, मुझे सस्पेंशन आर्डर मिला. प्रतिकूल अवस्थाएं, मनुष्य को अनुकूल बना देती हैं. 6 महीने बाद जब मुझे पुनर्स्थापित किया गया तो मुझमें काफी बदलाव आ गया था.

मुझे अवसर मिला और मैं बदरीनाथ-ऋषिकेश होता हुआ वाराणसी आ गया. सुबह-सबेरे अस्सी घाट पर स्नान-ध्यान कर संकट मोचन मंदिर पंहुच गया. उस दिन मंगलवार भी था. मुझे अभी तक याद है कि दर्शन भली-भांति हो इसलिए सामने के कुंएं की मुंडेर पर और लोगों के साथ खड़ा होकर तन्मय होकर हनुमान चालीसा का पाठ किया. उसके बाद श्री रामचंद्र के दर्शन को उनके गर्भ-स्थल गया. श्री रामचंद्र दयालु ... का भाव-विभोर होकर स्तुति की. उसके बाद इच्छा हुई उनकी पांच बार परिक्रमा करने की. पीछे कोने में, अँधेरे में, एक वयोवृद्ध दिखे, उम्र अस्सी की आस-पास, कद छ फीट से ज्यादा, लंबे-लंबे हाथ पैर. वे एक पैर पर दूसरा पैर चढ़ा कर लगता था घंटो से ध्यान की मुद्रा मैं बैठे हुए थे. अंतिम चक्र के समय मुझसे रहा न गया. मैंने उनके पाँव छू लिए. उन्होंने अपने पाँव ऐसे समेटे जैसे उन्हें करंट लग गया हो. पर साथ में उन्होंने आशीर्वाद की मुद्रा मैं हाथ भी उठाये. मैं स्वयं अपने इस कृत्य से इतना घबडा गया कि बिना पीछे देखे मंदिर से बाहर आ गया. बनारस से लौटते ही मुझे पदोन्नति मिली जिसकी मुझे शून्य प्रतिशत भी आशा नहीं थी. तबसे, मैं सदैव उन महात्मा को अपने स्मरण में बसाए रखा.

1999 जून में, मैं अपनी दोनों बेटियों को लेकर पुणे गया सिम्बियोसिस में दाखिले के लिए. दिक्कतें पेश आ रही थीं. सबसे भयानक दिक्कत तो यह थी कि मेरी लड़की ने सैकड़ों विकल्प होते हुए भी केवल सिम्बियोसिस का ही फॉर्म भरा था. उसके पूरे वर्ष के बर्बाद होने की स्थिति थी. तीसरे दिन, किसी सज्जन ने मुझसे कहा कि एक बार शिरडी साईं बाबा के दर्शन तो कर लीजिए इन्तजार के घड़ियों की उकताहट-घबराहट तो कम हो ही जायेगी घूमने से.
एक धार्मिक स्थल की जैसी छवि मेरे मन में थी वह जगह बिल्कुल वैसी ही थी. कोई दिखावा नहीं, पढ़े-लिखे महानुभाव, जज, डॉक्टर, इंजिनियर, प्रशासक आदि श्रद्धालुओं का मार्ग दर्शन करते हुए, देश-विदेश के जाने-माने कलाकार अपनी कला का प्रदर्शन करते हुए, साधू-संत सायंकाल की बेला में प्रवचन करते हुए, सभी धर्म-सम्प्रदाय के जन मेरी तरह विचरते हुए,
ठहरने के स्थानों मे और घरों में बिना दरवाजों का प्रविष्ट द्वार, मात्र दो रुपये में असीमित भोजन प्रसाद, नीम का हरा-भरा पेड जिसकी पत्तियां तक मीठी, एक ही प्रांगण में मंदिर, समाधि एवं मजारें भी और सबसे संतोषजनक न कोई मुल्ला और न कोई पंडित. मेरे जैसे नास्तिक को शायद कोई ठौर मिलता प्रतीत हो रहा था. मैंने कहीं पढ़ा था कि नास्तिकता भी आस्तिकता की एक श्रेणी है. नास्तिक अपना ज्यादा वक्त अपने भगवान को खोजने में ही लगा देता है.
भोजन प्रसाद लेकर जब मैं बाहर निकल रहा था तो समाधि-स्थल द्वार पर खड़े संतरी ने हमलोगों को अंदर जाकर रात्रि-आरती में सम्मलित होने को कहा. इस बार मैंने साईं बाबा को बहुत गौर से देखा. मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि क्या इन्हें ही मैंने संकट मोचन में देखा था.
वहाँ मैंने भोजन करना सीखा. मेरे दायीं तरफ सफेद वस्त्रों में एक वृद्ध साधू भोजन प्रसाद ले रहा था. एक बार सामने जितना परोसा गया उतने से ही उसने संतोष किया दुबारे लिया नहीं. साथ ही बची दो बड़ी रोटियों को और मिठाई के टुकड़े को उसने अपने थैले में डाल लिया. जिसे उसने बाहर सड़क पर आकर एक भिखारी को दे दिया. आगे जाकर एक मिठाई भी थैले से निकाल कर एक कुत्ते को अपने हाथों से खिलाई.
जब मैं पुणे लौट कर आया, तो मेरी बेटी का दाखिला बड़ी आसानी से हो गया साथ ही मुझे उसके रहने के लिए एक बिल्कुल मेरी रहन-सहन और संस्कार जैसे या उससे भी अच्छे प्रोफेसर के घर में पांच अन्य सिम्बियोसिस में पढ़ने वाली लड़कियों के साथ जगह मिल गयी. मेरे वंश से शायद मेरी लडकियां ही प्रथम थी जिन्होंने घर से बहुत दूर रहकर पढ़ने की हिम्मत दिखाई.
उसके बाद मेरे तीनों बच्चों की ग्रेजुएशन से आगे की पढाई और नौकरी पुणे मे ही हुई जिससे मुझे हर बार शिरडी जाकर साईंबाबा के दर्शन का भरपूर सौभाग्य प्राप्त हुआ.
अब लड़कियों का विवाह करना था पर उसके लिए पर्याप्त पैसे नहीं थे. इसलिए मैंने स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति का मन बनाया पर मैनेजमेंट मुझे प्रोन्नति और सामान्य सेवानिवृत्ति के बाद सेवा विस्तार का लालच देने लगी. इन सब उपचारों से मुझे एक मुश्त 20-25 लाख मिलने वाले नहीं थे. जब एक वर्ष तक,बात बनते नहीं दिखी तो मैंने शिरडी जाकर हाथ जोड़े. लौटते समय, ट्रेन में, अपने प्रांत की सीमा लांघते ही मैंने समाचार पत्र में मेरे पक्ष में मैनेजमेंट की सहमति पढ़ी. यह भी आकस्मिक नहीं हुआ कि मेरे दोनों दामाद और मेरी बहू और उन सभी के माता-पिता-परिवार भी साईं भक्त ही हैं.
कुछ वर्ष पहले, मेरी माँ के श्राद्ध क्रिया के खत्म होते ही मुझे आई०सी०सी०यू में बहुत ही बिगड़ी अवस्था में दाखिल कराया गया.लगातार आक्सीजन दिया जाता रहा. जब भी मैं मूर्छा की अवस्था में आता , मुझे दिखता कि सात-आठ फूट लंबे साईं बाबा गेरुए वस्त्र में अपनी गोद में मेरा सर रखकर सहला रहे है.  मेरे स्वास्थ्य-लाभ पर मेरे डॉक्टर भी आश्चर्यचकित थे. उन्हें जब कोई कारण न दिखा तो मेरी श्रीमती की तुलना सती सावित्री से कर डाली.
उसके एक वर्ष बाद मुझे ह्रदय-घात हुआ. एंजियोप्लास्टी हुई.इस बार न मैं और न मेरी श्रीमती तनिक भी विचलित हुईं. चार महीने बाद जब मैं पुणे के जहांगीर हार्ट अस्पताल में अपनी गहरी जांच के लिए गया तो मेरे बेटे ने स्वतः साईं दर्शन ले जाने की इच्छा दिखाई.
दिवाली की सुबह जब बहुत भीड़ की आशंका से हमलोग तड़के सुबह मंदिर द्वार पर पहुंचे तब मेरे पाकेट में मेरा सेल रह गया था. मेरा लड़का उसे जमा करने गया पर उसने भली-भांति दर्शन हो पाने में आशंका जताई. जैसे ही हमारी कतार दरवाजे तक पहुंची, हमलोगों को भीड़ नियंत्रित करने की खातिर रोक दिया गया. आधे घंटे की प्रतीक्षा के बाद जब दरवाजा खुला तो हमलोगों ने पूरी आरती पहली कतार में खड़े होकर देखी. मैं तबतक 25-30 बार दर्शन को आ चुका था पर ऐसा दर्शन पहली बार हुआ था.
इन १५ वर्षों में पूरे शिरडी में मुंबई की धमक और बालीवुड की चमक ने लगभग सम्पूर्ण बदलाव सा ला दिया है. स्वयं
साईं बाबा को आभूषणों के बोझ ने दबा रखा है. गाँव की भीनी सुगंध और ऐतहासिक शिरडी कहीं खो सा गया है. पर क्या साईं की नजर में कोई भी अन्तर आया है ?  एक अजीब अनुभव होता है हरेक बार. मैं जिस मनःस्थिति से उनके समक्ष पहुँचता हूँ, उनकी आँखों में वैसा ही भाव  देखता हूँ, प्यार भरा, रोष भरा, चिंतित, गंभीर, मुस्कुराता हुआ, शान्त और कभी ऊपर की तरफ वैराग्य से देखता हुआ.
भारतवर्ष की १२५ करोड आबादी ३५ लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में फ़ैली है. प्रत्येक १००० वर्ग पर रहन-सहन व भाषा बदल जाती है. यहाँ हजारों जातियां बसती हैं. धर्म और संप्रदाय सैकड़ों की संख्या में कुतर्क और लड़-झगड रहे हैं. ऐसी विविधता में मात्र साईं बाबा का चरित्र ही सूर्य के प्रकाश की तरह सबको प्रकाशित करता रहता है.
गीता में यह कई बार कहा गया है कि स्थितप्रज्ञ की अवस्था प्राप्त करने के लिए श्रद्धा और धैर्य के अभ्यास से आरभ करना चाहिए. यही साईं प्रांगण में सब जगह लिखा मिलेगा. आप पहली बार जब साईं दर्शन को जाएँ तो प्रसन्न मन से जाएँ. अगर दुखी मन से, बहुत सारी चिंताएं लेकर पहुंचेंगे तो साईं बाबा के सामने आने पर बरबस सुबकने लगेंगे.

मैं गुरु, भगवान, ईश्वर, अवतार इत्यादि की परिभाषा में नहीं उलझना चाहता. बचपन से सुख-दुःख में किसी के पास, कहीं तो जाने की आदत सी पड़ गयी है. जिनसे स्नेह मिलता है, उन्हें स्नेह देने का प्रयत्न करता हूँ.

Saturday, January 18, 2014

दाल मंडी !

शादी के तीन वर्ष बाद मुझे वाराणसी जाने का अवसर मिला. मेरी श्रीमती को भजन-पूजन से बहुत लगाव है इसीलिये जाते ही तडके विश्वनाथ जी के मंदिर दर्शन-अर्चन को चला गया. लौटते समय किसी से पूछकर बेनिया बाग़ जाने के दौरान गलिओं के जंजाल में किसी एक गली में घुस गया जिसमें केवल महिलायों के श्रृंगार की चीजें बिक रही थीं. श्रीमती जी को तो आनंद आ गया. संकरी गली, दोमंजिले-तीन मंजिले मकान जिनके बरामदे और जीनें तक परदे और चटाईओं से छिपी थी. यहाँ तक की आसमान कहीं से भी नहीं दिखता था. गलियों में महिलायें ही खरीद-फरोख्त कर रही थीं. मेरे जैसे युगल एक-दो ही दिख रहे थे.
शाम ढले उसी गली का सहारा लिया लौटने को. पूरी गली रंगीन बत्तियों और चहल-पहल से गुलजार थी. लगा की किसी दूसरी अजनबी गली में आ गया हूँ. पर दूकानें तो जानी-पहचानी लग रही थी. मौके से थोड़ी अभ्यास्थता हो जाने पर, अचानक तबले की थाप, सुरीली आवाजों में गाने और घुन्घुरुओं की खनखनाहट भी सुनाई पड़ने लगी. तभी अगल-बगल की चहल-पहल पर गौर करने पर दिखा कि सभी पुरुष वर्ग ही दिख रहें हैं. मात्र मेरे साथ महिलायों की गिनती में मेरी श्रीमती ही थीं. माजरा समझते देर न लगी. मैंने श्रीमती से कहा की जितनी जल्दी हो सके निकल चलो यहाँ से . पर वह तो टोकरी में पसरे फूलों के गजरे की तरफ से नजर ही नहीं हटाना चाह रही थी. किसी तरह आनन-फानन में गली से बाहर चौक पर आया, रिक्शा की और घर पंहुंचा. मुंह फुलाये श्रीमती को मैंने समझाया कि हमलोग मशहूर दालमंडी की गलियों में थे. 
छोटे बच्चों को अपने चाचा-मामाओं से बहुत सी अपेक्षाएं होती हैं. 1980 के दशक में इनमें सर्वोपरि फिल्म या सर्कस लिवा ले जाना और आइसक्रीम खाना प्रमुख होती थी. इन सबका एक ही स्ट्रोक में समावेश किसी सिनेमा हॉल में ही आसानी से सिद्ध होता था. मैंने बड़ी सावधानी से एक साफ़-सुथरी विश्व युद्ध-२ पर आधारित पुरस्कार प्राप्त रशियन फिल्म चुनी जिसमें अंग्रेजी में सब-टाइटलस भी लिख कर आते थे. नाम था “लिबरेशन”. 12 बजे दिन वाले शो में मैं अपने साथ 3-10 उम्र के चार बच्चों के साथ सिनेमा हॉल पहुंचा. उस समय, बनारस जैसे हिंदी बहुताय वाले शहर में विदेशी फ़िल्में एक्का-दुक्का और एक-आध शो के लिए ही आया करती थी. 
भीड़ थी पर सबसे मंहगें वाले काउंटर पर गुंजाईश दिख रही थी. तभी मेरे 7 वर्षीय भतीजे ने मुझे 10-10 के तीन नोट थमाए और कहा कि फलां बुर्के वाली आंटियों को पांच टिकटें चाहिए. मैंने मुड़ कर देखा. उनके अलावे कोई नहीं दिखा. खैर मैंने टिकट और पैसे भतीजे को दिए लौटाने के लिए. जिन उँगलियों ने वह टिकट लिए वह 20-25 वर्ष के उम्र की लगीं. मैं अचरज में था. ये लोग खुद भी टिकट खरीद सकते थे. उस वक्त अंग्रेजी फ़िल्में देखना स्टेटस सिंबल माना जाता था.

इंटरवल के पहले लौरेल-हार्डी की फिल्म थी और बाद में असल फिल्म. सभी फिल्म देख कर आनंदित हुए., खासकर पहले हाफ में. फिल्म में फाइटर प्लेन की डॉग फाइट बच्चों को तो बांधे रखी पर पीछे की पंक्ति में बैठी युवतिया फिल्म बीच ही में छोड़ कर चली गयीं. लौटते समय मैं यह भी सोच रहा था कि बुर्के में छिपी आकृतियाँ खुद भी टिकट ले सकती थीं और अगर इतनी भी समझ नहीं थी तो अंग्रेजी फिल्म देखने क्यों आयीं.

घर लौटकर हमलोगों ने फिल्म की कहानी बड़े भाई और भाभी को बतायी साथ में वह बुर्के वाला वाकया भी. बड़े भाई ने हौले से मुस्कुरा कर पूछा ,” क्या बात है , तुम्हारी भेंट बार-बार दालमंडी से हो रही है ? उनलोगों को दोपहर का समय ही मिलता है फुर्सत का”. और मैं सोच रहा था कि क्या उन युवतियों ने लिबरेशन का मतलब अपनी आजादी से लगाया था ?