शादी के तीन वर्ष बाद मुझे वाराणसी जाने
का अवसर मिला. मेरी श्रीमती को भजन-पूजन से बहुत लगाव है इसीलिये जाते ही तडके
विश्वनाथ जी के मंदिर दर्शन-अर्चन को चला गया. लौटते समय किसी से पूछकर बेनिया बाग़
जाने के दौरान गलिओं के जंजाल में किसी एक गली में घुस गया जिसमें केवल महिलायों
के श्रृंगार की चीजें बिक रही थीं. श्रीमती जी को तो आनंद आ गया. संकरी गली,
दोमंजिले-तीन मंजिले मकान जिनके बरामदे और जीनें तक परदे और चटाईओं से छिपी थी.
यहाँ तक की आसमान कहीं से भी नहीं दिखता था. गलियों में महिलायें ही खरीद-फरोख्त
कर रही थीं. मेरे जैसे युगल एक-दो ही दिख रहे थे.
शाम ढले उसी गली का सहारा लिया लौटने को.
पूरी गली रंगीन बत्तियों और
चहल-पहल से गुलजार थी. लगा की किसी दूसरी अजनबी गली में आ गया हूँ. पर दूकानें तो
जानी-पहचानी लग रही थी. मौके से थोड़ी अभ्यास्थता हो जाने पर, अचानक तबले की थाप,
सुरीली आवाजों में गाने और घुन्घुरुओं की खनखनाहट भी सुनाई पड़ने लगी. तभी अगल-बगल
की चहल-पहल पर गौर करने पर दिखा कि सभी पुरुष वर्ग ही दिख रहें हैं. मात्र मेरे
साथ महिलायों की गिनती में मेरी श्रीमती ही थीं. माजरा समझते देर न लगी. मैंने
श्रीमती से कहा की जितनी जल्दी हो सके निकल चलो यहाँ से . पर वह तो टोकरी में पसरे
फूलों के गजरे की तरफ से नजर ही नहीं हटाना चाह रही थी. किसी तरह आनन-फानन में गली
से बाहर चौक पर आया, रिक्शा की और घर पंहुंचा. मुंह फुलाये श्रीमती को मैंने
समझाया कि हमलोग मशहूर दालमंडी की गलियों में थे.
छोटे बच्चों को अपने चाचा-मामाओं से बहुत
सी अपेक्षाएं होती हैं. 1980 के दशक में इनमें
सर्वोपरि फिल्म या सर्कस लिवा ले जाना और आइसक्रीम खाना प्रमुख होती थी. इन सबका
एक ही स्ट्रोक में समावेश किसी सिनेमा हॉल में ही आसानी से सिद्ध होता था. मैंने
बड़ी सावधानी से एक साफ़-सुथरी विश्व युद्ध-२ पर आधारित पुरस्कार प्राप्त रशियन
फिल्म चुनी जिसमें अंग्रेजी में सब-टाइटलस भी लिख कर आते थे. नाम था “लिबरेशन”. 12 बजे दिन वाले शो में मैं अपने साथ 3-10
उम्र के चार बच्चों के साथ सिनेमा हॉल पहुंचा. उस समय, बनारस जैसे हिंदी बहुताय
वाले शहर में विदेशी फ़िल्में एक्का-दुक्का और एक-आध शो के लिए ही आया करती
थी.
भीड़ थी पर सबसे मंहगें वाले काउंटर पर
गुंजाईश दिख रही थी. तभी मेरे 7 वर्षीय भतीजे ने मुझे
10-10 के तीन नोट थमाए और कहा कि फलां बुर्के वाली
आंटियों को पांच टिकटें चाहिए. मैंने मुड़ कर देखा. उनके अलावे कोई नहीं दिखा. खैर
मैंने टिकट और पैसे भतीजे को दिए लौटाने के लिए. जिन उँगलियों ने वह टिकट लिए वह 20-25 वर्ष के उम्र की लगीं. मैं अचरज में था. ये लोग खुद भी टिकट खरीद सकते
थे. उस वक्त अंग्रेजी फ़िल्में देखना स्टेटस सिंबल माना जाता था.
इंटरवल के पहले लौरेल-हार्डी की फिल्म थी
और बाद में असल फिल्म. सभी फिल्म देख कर आनंदित हुए., खासकर पहले हाफ में. फिल्म
में फाइटर प्लेन की डॉग फाइट बच्चों को तो बांधे रखी पर पीछे की पंक्ति में बैठी
युवतिया फिल्म बीच ही में छोड़ कर चली गयीं. लौटते समय मैं यह भी सोच रहा था कि
बुर्के में छिपी आकृतियाँ खुद भी टिकट ले सकती थीं और अगर इतनी भी समझ नहीं थी तो
अंग्रेजी फिल्म देखने क्यों आयीं.
घर लौटकर हमलोगों ने फिल्म की कहानी बड़े
भाई और भाभी को बतायी साथ में वह बुर्के वाला वाकया भी. बड़े भाई ने हौले से
मुस्कुरा कर पूछा ,” क्या बात है , तुम्हारी भेंट बार-बार दालमंडी से हो रही है ?
उनलोगों को दोपहर का समय ही मिलता है फुर्सत का”. और मैं सोच रहा था कि क्या उन
युवतियों ने लिबरेशन का मतलब अपनी आजादी से लगाया था ?