कोई कितना भी पैसेवाला हो, अमीर हो, वह बड़ा तो हो सकता है पर
महान नहीं. महात्मा गाँधी की महानता उनकी सादगी में निहित थी. मैं बहुत पहले श्री
जहांगीर रतनजी दादाभोई टाटा का टीवी पर इंटरव्यू देख रहा था. उनसे प्रश्न पूछा
गया- "आपको तो रफ्तारों का बाजीगर कहा जाता है. देश में पहली हवाई उड़ान का श्रेय
भी आपही को जाता है. आज भी इस उम्र में आप अपनी कार खुद ही ड्राइव करते हैं. अगर
कोई आपको ओवरटेक करना चाहता है तो क्या आपको क्रोध नहीं आता है." टाटा ने
मुस्कुराते हुए जवाब दिया- "नहीं ! अच्छा लगता है जोश देखकर. मैं तुरत उसे आगे बढ़ने की जगह दे
देता हूँ." जब उनसे पूछा गया- " आप तो अपने पांच सितारा होटल ताज के सुइट
में अकेले रहते हैं. आप तो तरह-तरह की
नायाब खाने का लुत्फ़ उठाते होगें." उनका जवाब था- " मैं अरसे से उबले
हुए आंटे की दो रोटी और उसके साथ कोई भी उबली सब्जी और बदलाव के साथ कुछ सलाद ही
स्वाद लेकर खाता हूँ." शायद और कोई बोलता होता तो मुझे शक भी होता पर उनके
बोलने में जो शालीनता और सादगी थी उसने उसकी कोई गुंजाईश छोड़ी ही नहीं.
दिवंगत श्री तीरख राम गुप्ता का ब्यौरा इन्टरनेट पर खोजने पर
भी नहीं मिलता है. पर उषा ग्रुप से भला कौन नहीं परिचित होगा. इस साम्राज्य की नीव
और उसके व्यापार को इन्होने ही सवारा था. नेहरु जी ने इन्हें अपने चहेते हैवी
इंजीनियरिंग कारपोरेशन, रांची को ट्रैक पर लाने के लिए इन्हें ही 1965 में चेयरमैन
बनाकर भेजा था. मेरे पिताजी बिहार सरकार की तरफ से डेपुटेशन पर सेक्रेटरी के पद पर
कार्यरत थे. पिताजी अपनी सेहत के कारण घर की बनी चार पतली रोटियाँ और उबली हुई
सब्जी ले जाते थे लंच के लिए. बाद में छः ले जाने लगे. मालूम हुआ चेयरमैन गुप्ताजी
जब भी हेडक्वार्टर में रहते, लंच शेयर करने पिताजी के कमरे में आ जाया करते.
1969 के आस-पास,एक बार, पिताजी बोर्ड की मीटिंग में शामिल होने
दिल्ली जा रहे थे. इंडियन एयरलाइन्स का पंखों वाला फोक्कर फ्रेंडशिप हवाई जहाज
कलकत्ता से रांची, पटना, लखनऊ होते हुए दिल्ली जाता था. 50 यात्रियों का यह प्लेन शायद सप्ताह में 3 उड़ान लेता था । नहीं याद है कि उस
चार-पांच घंटे की फ्लाइट में लंच दिया जाता था या नहीं पर पिताजी अपना भोजन अपने
साथ ले जाते थे. प्लेन में खिड़की वाली सीट पर पहले से कोई 70 के आस-पास के बुजुर्ग
बैठे हुए थे. वे अस्वस्थ तो नहीं दिख रहे थे पर एयर होस्टेस उनका कुछ ज्यादा ही
ख्याल रख रही थी. शायद और कोई तकलीफ हो. देखने से कोई पढ़े-लिखे भले व्यापारी लगते
थे. रास्ते भर वे अपनी फाइल के पन्नों में उलझे रहे. पिताजी को यह समझ में नहीं आ
रहा था कि उन सुइट-टाई पहने महानुभाव को खिड़की वाली सीट लेने की क्या जरूरत थी.
पिताजी ठीक एक बजे दिन में अपना भोजन कर लेते थे पर बगल वाली सीट के सामने लंच का
डिब्बा खोलने में संकोच हो रहा था वह भी सूखी रोटियों वाला. उन महानुभाव को शायद
इसका भान हो गया या फिर वह भी इसी समय लंच लिया करते थे. उन्होंने पैर के पास पड़े
बैग से सुन्दर सा लंच का डब्बा निकाला और उसे खोला. अरे ! उसमें भी ठीक उसी शक्ल
की रोटी और सब्जिया. सारा संकोच खत्म हो गया. उन महानुभाव ने उसके बाद कोई दस मिनट
पिता जी से उनके बारे में और कंपनी की सेहत के बारे में बातें की और फिर वे अपनी
फाइल में उलझ गए. दिल्ली आ गया. पिताजी से हाथ मिलाकर वे बुजुर्ग तेजी से उठकर
दरवाजे की तरफ लपके. एयर होस्टेस ने भी उनकी आगवानी कर उनका उतरना सहज बना दिया.
पिताजी ने उन महानुभाव का नाम तक नहीं जाना था. दरवाजे से बाहर निकलते वक्त
उन्होंने होस्टेस से पूछा कि क्या वह उन्हें जानती है.
वह बुजुर्ग और कोई नहीं श्री घनश्याम दास बिरला थे .