मेरी उम्र १३ वर्ष थी जब मैंने स्कूल पास किया. कॉलेज में भी मेरा बचपना बहुत
दिनों तक मेरे साथ रहा. अपनी कॉलोनी में हमलोग सरस्वती पूजा करते थे. चन्दा
बटोरना, प्रतिमा स्थापित कर पूजा से ज्यादा धूमधाम मचाना और विसर्जन के बाद सार्वजनिक
भोज का आनंद उठाना कुछ ऐसे क्षण होते थे जो पुनः अगली बसंत पंचमी की बाँट जोहाते
रहते थे.
सार्वजनिक भोज का सारा इंतजाम झा अंकल के घर होता था. एक बार, जब झा आंटी पूरी
का आटा गूंथ रही थीं तो मैंने उनका सहयोग किया. उनकी ख़ुशी देखकर मैंने पूरियां भी
बेली और कुछ तलकर निकाली भी. भोज में सबसे ज्यादा बार खीर मुझे मिली. उससे दिन
मुझे यह भान हुआ कि थोड़ी सी मदद किसी को कितना विभोर कर देती है. अगले दिन कॉलेज
जाते समय मैंने माँ को कहा कि नेरे लिए वह एक मोटा पराठा या रोटी भर बनाकर रख दे
जिसे मैं सब्जी या मात्र गुड के साथ खा लूँगा. माँ जिसे दर्जन भर लोगों के लिए
नाश्ता और खाना बनाना पड़ता था बहुत खुश हुई. अगले दिन और फिर बहुत दिनों तक मुझे पराठा
या देसी घी से भींगी रोटी मिलती रही आशीष के साथ. मैं भी जब-तब चौके में माँ के
काम में हाथ बटाटा रहता था. बाद में यह सिलसिला मैंने भाभी के साथ भी जारी रखा. एक
दिन मेरे बड़े भाई ने प्यार से डांटकर मुझे चौके से निकाला, कहा- “प्रकाश प्रोटोकॉल
बिगाड़ रहा है . आयेदिन मुझे सहयोग न देने के कारण उलाहना मिलता है.” मुझे अपने भाईयों,
रिश्तेदारों और और यहाँ तक कि दोस्तों से भी झिढ़कियां मिलती रही. पर खाना बनाने और
खिलाने का आनंद मैं ताउम्र उठाता रहा.
आज सभी को किचेन में देखा जा सकता है. मजबूरन, जिनकी बीबी अब नहीं हैं या
बीमार रहती हैं या खाना बनाते-बनाते ऊब चुकी हैं. शौकिया, जिन्हें वैसा कुछ
खाने-खिलाने का शौक है जैसा वे चाहते हैं नयी पीढ़ी के लिए तो यह अनिवार्यता हो गयी
है क्योंकि अब मिया-बीबी दोनों नौकरीयाफ्ता हैं.
मेरे एक मित्र एक दिन परेशान से मेरे घर आये. परेशानी से ज्यादा वे परेशानी
में डूबने-उतराने से परेशान थे. मैंने उनके लिए बिरियानी बनायी. खाते समय मैंने उन्हें
बताया कि किताबे पढने, टीवी देखने से ज्यादा आनंददायक और कामगर स्ट्रेस बस्टर खाना
बनाने की व्यस्तता है.