Thursday, June 14, 2012

आ बैल ! मुझे मार !


Man is the only animal for whom 
his own existence is a problem which he has to solve.

अपने देश में एक मुहावरा बहुत प्रचलित है. “बैल की तरह जोतना” . यह मुहावरा उन लोगों पर कहा जाता है जिनसे जमकर, कमर तोड़ काम लिया जाता है. यह काम शारीरिक श्रम अथवा बौद्धिक हो सकता है. चुकी मेरी सारी जिंदगी शहरी वातावरण में गुजरी इसलिए कभी बैल की जिंदगी देखने-समझने का मौक़ा नहीं मिला. भला कौन शहरी इंसान सुबह से रात तक बैल का क्रियाकलाप देखता रहना चाहेगा. पर जहां चाह है वहाँ राह भी है. मुझे यह मौक़ा सफर के दौरान मिल ही गया.
२००१ जुलाई में, मै पुणे से रांची लौट रहा था. ट्रेन से यह सफर ३६ घंटे में तय होता था. ट्रेन शाम को चलती थी और तीसरे दिन तड़के सुबह रांची पहुँचती थी. प्रसिद्ध कथाकार आर०के०नारायण की सलाह का मै अक्षरशः पालन करता हूँ. ट्रेन में मैं पढ़ने से परहेज रखता हूँ और घड़ी नहीं पहनता हूँ. ट्रेन के अंदर और बाहर इतना कुछ देखने के लिए है जो किसी भी कहानी और उपन्यास से ज्यादा रोचक होता है. और जब सफर पर है और मालूम है की ट्रेन की रफ़्तार मेरा समय तय कर रही है तो घड़ी का क्या काम. जब भूख लगे खा लिया जब नींद लगे सो लिया.और हाँ, याद रखिये, सबसे अच्छा दृश्य पौ फटते ही दिखना शुरू हो जाता है.
भारत गावों का देश है. ट्रेन जलगांव स्टेशन छोड़ चुकी थी. सुबह जैसे ही अँधेरा कम होने लगा और बाहर दिखने लगा , मैं खिड़की से सट कर बैठ गया. कहीं कहीं अभी भी दिए और लालटेन की टिमटिमाती रौशनी दिख रही थी. दूर-दूर तक हरे-भरे खेत, पेड़ों के बीच से झांकता कही एक झोपडा, कहीं तीन-चार सटे सुघड़ खपरैले घर और घरों से निकलती लकड़ी के चूल्हों का धुंआ जो पेड़ से ऊंचा जाने में घबडा रहा था. और तभी मेरी कथा का नायक दिख गया.
अन्धेरें में जितना दिख रहा था उससे लगा कि घर से सटे पेड़ की नीचे बंधे तीन-चार हरियाणवी बैल खूंटे को तोड़कर भागना चाहते थे. ट्रेन अपनी रफ़्तार से तकरीबन ८० किलोमीटर प्रति घंटे से आगे बढ़ी जा रही थी. कुछ दस मिनट बाद वैसा ही कुछ नजदीक आते गाँव में झुरमुट के पार दिखा. ओह ! बैलों को सुबह का भोजन परोसा जा रहा था और बैलों में नाद के पास पहुँचने की छटपटाहट थी. इसके बाद कुछ पचास किलोमीटर तक ऐसा ही नजारा देखने को मिला. भोजन परोसने से लेकर भर पेट खाने का सफर.
धरती के पूरब का आसमान लाल , उसके बाद नारंगी होता जा रहा था. तभी सूरज पूरी लालिमा के साथ दिखना शुरू हो गया. पेड़ और चूल्हे से उठते धुंएं से छनकर सूरज की रौशनी चारों तरफ फैलने लगी. रेल की पटरी से सटी कच्ची-पक्की सड़कों पर चहल-पहल दिखने लगी. बहुतायत उन किसानों की थी जो बैलों की जोड़ी के साथ अपने खेतों की तरफ जा रहे थे. एक्का-दुक्का, टायर वाली बैलगाडियां भी गुजर रही थीं. किसी-किसी बैलगाडी के पीछे भी एक-दो बैल बंधे जा रहे थे. कुछ तेज़ी से और कुछ बहुत तेज़ी से अपने गंतव्य की ओर बढ़ रहे थे. बैलों को तो देख कर ऐसा लग रहा था कि जैसे उन्हें खेल के मैदान में जाने और खेलने की जल्दी हो. एक जोड़ी बैल तो बच्चों की तरह रस्सी छुडाकर भाग रहे थे और उनका मालिक पीछे-पीछे दौड रहा था. लग रहा था जैसे सबलोग बहुत खुश थे.
सूरज निकले १५ मिनट हो चुका था. चारों तरफ दूर-दूर तक केवल खेत ही खेत दिख रहे थी, कुछ जो जुत चुके थे, कुछ जिन्हें और जोतना बाकी था और कुछ अनछूए. कहीं बैलों पर हल चढाने की कोशिश हो रही थी. बैल बच्चों जैसे भागम-भाग कर रहे थे जैसा अक्सर कपड़े या जूते पहनाने के समय करते हैं. कहीं जोतना शुरू हो गया था. किसान और बैल दोनों में तेज़ी साफ़-साफ़ दिख रही थी. ऐसा कुछ अगले पांच घंटे दिखता रहा. जैसे-जैसे दिन चढ रहा था तेज़ी में कमी झलकने लगी थी.
ट्रेन में जब हमलोगों को खाना सर्व किया जा रहा था उस समय बैल पेड़ की छाँव में बैठ कर जुगाली करते और उनके मालिक खाना खाते दिख रहे थे.औरतें रंगीन कपड़े पहने चहलकदमी करती दिख रहीं थीं. कहीं-कहीं बच्चे भी खेलते दिख रहे थे. खाना खाने के बाद, मुझे झपकी आ गयी. दो घंटे बाद जब पुनः बाहर नजर गयी तो देखा किसान और उसके बैल दोनों मंथर गति से खेत जोत रहे थे. सूरज डूब रहा था. मैं थोड़ी नजदीकी और अच्छे से देखने के लिए कोरिडोर वाले सीट पर बैठ गया.
ट्रेन के बगल-बगल पक्की सड़क थी. उसपर दो-तीन बैलगाडियों में लगता था जैसे रेस लगी हो. बैल तो खुद तेज़ी से दौड ही रहे थे साथ-साथ गाडीवान उन्हें और तेज़ी से दौड़ने को उकसा रहे थे. बैलों के गले में बंधी घंटी सुनकर पैदल चलने वाले सावधान होते जा रहे थे. साइकिल सवार पीछे छूटते जाते थे और स्कूटर/बाइक को आगे रहने के लिए कुछ ज्यादा तेज चलाना पड़ रहा था.अँधेरा होते-होते सभी अपने घर पहुँच चुके थे. कहीं-कहीं तो बैलो को भोजन दिया भी जा चुका था. तभी रायपुर स्टेशन पहुँचने लगा.
स्टेशन से कुछ आधे घंटे बाद गाँवों की टिमटिमाती रौशनी फिर दिखने लगी. कहीं-कहीं बिजली के बल्ब की रौशनी भी थी. बैल घर से सटे पेड़ के नीचे या शेड के नीचे बैठ कर जुगाली कर रहे थे अथवा सो चुके थे. 
बचपन  में मुझे बछड़ों के साथ खेलने-खिलाने का बहुत अवसर मिला है जब मैं सामने दूध दुहवा कर ग्वालों के तबेले में जाता था. मैंने ग्वालों को गाय और बछड़ों को दूर मैदान में घांस चराते भी देखा है जहां बछड़े चरते कम और अपनी माँ के साथ खिलवाड ज्यादा करते थे. मैंने ट्रेन से स्टेशन आउटर पर एक कट कर मरे हुए बैल के मांस की बांटा-बांटी भी देखी है. 
आज शायद बैल की आत्मकहानी पूरी होती मालूम हुई. मुझे तो बैल अपनी जिंदगी से बहुत खुश दिखे.
रात को नींद में बैल महाशय का आगमन हुआ. बात शुरू करने की खातिर मैंने उससे पूछा कि के वह बैल की जिंदगी से तंग नहीं आ चुका है और क्या वह अगली बार मनुष्य का जीवन जीना चाहेगा ? उसने घूम कर अपनी गेंद जैसी बड़ी आँखों से मुझे से देखा . ऐसा लगा जैसे मैंने उसे उकसा दिया हो,” आ बैल ! मुझे मार ! उसने कुछ ही क्षणों में मुझे लज्जित कर दिया. उसे मनुष्य की जिंदगी सबसे नीचे दर्जे की लगती थी. जो उसने कहा उसपर आप भी गौर कीजिये.
"मैं जितना लेता हूँ उससे कहीं ज्यादा देता हूँ. मैं तुमलोगों से जो बचता है और जिसे तुम फेंकने के अलावा और कुछ नहीं कर सकते उसीसे पेट भरता हूँ. मैं श्रम और पसीने की कमाई पर कायम हूँ. मैं कभी बीमार नहीं पड़ता. अगर पड़ता भी हूँ तो तुमलोगों की ज्यादती से. मैं कभी बूढा नहीं होता. यह भी तुम्हारी ही मेहरबानी है. तुमलोग उससे पहले ही मुझे मारकर अपना भोजन बना लेते हो. मेरे समाज में दुराचार नहीं है, व्याभिचार नहीं है, अत्याचार नहीं है. मैं तुम्हारी तरह कुछ भी बचा कर नहीं रखता जबकि तुम बचाते और संचय करते-करते मर जाते हो फिर भी तुम्हारा लालच कायम रहता है. तुम सदैव विषमता में हो. मै सदैव सत्-चित-आनंद में हूँ."
मैं घबड़ा कर नींद से जागकर उठ बैठा. मुझसे किसी ने कुछ ही दिन पहले पूछा था कि मैं अगले जन्म में क्या बनना चाहूंगा. और मैंने तपाक से जवाब दिया था कि मैं मनुष्य और मैं ही बनना चाहूँगा. आखिर मै भी सबकी तरह अपने को सबसे ज्यादा पसंद और प्यार करता हूँ.
एक दूसरी सुबह हो रही थी. ट्रेन अपने मुकाम पर पहुँच चुकी थी. पर मैंने अबतक अपने गंतव्य को न जाना था, न पहचाना था और न तरीके से कोशिश की थी. पर एक बात सो बिलकुल साफ़ नज़र आती है. जैसे कौवे, सूअर, बैल, कुत्ते को अपनी जिंदगी ही सबसे अच्छी लगती है वैसे ही मनुष्य को भी चाहे वह भिखारी हो या राजा हो.
मैं कुछ वर्ष चिन्मय मिशन के साप्ताहिक स्वाध्याय में भी जाता था जहां अंत में एक सामूहिक प्रण किया जाता था पर उस प्रण पर चलते न तो स्वाध्याय में भाग लेने वालों पाता था न तो अपने आस-पास के लोगों में ! आप स्वयं उस प्रण पर कितना खरा उतरते हैं जांच लीजिए :- 
The Chinmaya Mission Pledge 

We stand as one family, 
bound to each other, 
with love and respect.
We serve as an army, 
courageous and disciplined, 
ever ready to fight against, 
all low tendencies and false values, 
within and without us.
We live honestly the noble life of 
sacrifice and service, 
producing more than 
what we consume,
and giving more than what we take.
We seek the Lord’s Grace
to keep us on the path of 
virtue, courage and wisdom.
May Thy grace and blessings flow 
through us to the world around us.
We believe that 
the service of our country
is the service of the Lord of Lords, 
And the devotion to the people is 
the devotion to the Supreme Self.
We know our responsibilities, 
give us the ability and the 
courage to fulfill them.
OM TAT SAT 

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