"Many people still have this crude notion that the West is materialistic, and the East is spiritual. By ‘West’, they particularly point towards the United States, England, France, etc., as these countries are rich, and by ‘East’ they mean themselves, Indians. Indians are spiritual, and the ‘westerners’ are materialistic. Especially so, for those who have not gone out of India, or have just gone as tourists, Times have changed, and our ideas should change. The world is one now and the problems are the same everywhere." - Swami Vivekanand
स्वामी विवेकानंद ने आज से सौ वर्ष पहले यह कहा था की जब पूर्व पश्चिम की भौतिकतावाद और पश्चिम पूर्व की आध्यातिक्मता को समिश्रित कर लेगा तब सत्य में एकात्मकता का सृजन होगा. काश ! इस पृथ्वी के 1000 करोड़ आबादी में कोई भी दो मनुष्य एक जैसी सोच रखता. मेरी सोच भी शायद कुछ भिन्न ही होगी.
पश्चिमी देशों में या यों कहिये विकसित देशों में 95% लोगों के पास मोटर कार हैं. सड़कें एक क्षण भी अकेली नहीं होतीं हैं. पर जब भी
कोई पैदल सड़क पार करना चाहता है तब कारें रूकती ही नहीं है बल्कि उनमें बैठा शख्स मुस्कुराते
हुए इशारे से सड़क पार करने का आग्रह करता दिखता है. अमेरिका में दायीं तरफ की
ड्राइव होने के कारण मुझसे सड़क पार करने में अक्सर गलती हो जाती थी. पर कारें
रूकती ही नहीं थी बल्कि इतने हौले से रूकती थीं कि मुझे सुनाई भी नहीं पड़ता था. क्या
ये वही देश हैं जहां कुछ दशक पहले काउ-बॉयज की बहुतायत होती थी जो घोड़े पर ही
दिखाई देते थे और बात-बात पर गोलियां चलाते
थे. फिल्मों में सबसे ज्यादा तालियाँ “When shoot, shoot don’t talk !“ पर बजती थीं.
भारत जैसे विकासशील देशों में ऐसा कम देखने को मिलता है. यहाँ के लोग पब्लिक
ट्रांसपोर्ट पर ज्यादा निर्भर हैं. छोटे शहरों और कस्बों में ऑटो रिक्शा का
बोलबाला है. इनके चालकों को केवल सवारी या बॉडी दिखती है. थोड़ी सी गफलत हुई और चोट
पहुंची. पर यहाँ भी भातिकतावादी में अध्यात्म का मिश्रण दिखता है. चाहे आप कितनी
भी दूर हों, अगर चालक को बॉडी दिख गयी तो वह घरघराती रिक्शा खड़ी कर आपका इन्तेजार
करेगा चाहे बाकि बैठे यात्री कितना भी तिलमिलाएं.
कैरी ऑन व्हिल्ड लगेज को प्लेटफार्म की सीढियां चढाने में मुझे परेशानी होती
है. ट्रेन से यह सोचते उतर रहा था कि भले कुली 100-150 मांगे, मुझसे ये न
ढोया जायेगा. तभी एक ऑटो रिक्शा वाला प्लेटफार्म पर मेरे पास आया. उसने मुझसे पांच
किलोमीटर दूर मेरे निवास के 120 रुपये मांगे. वह 20-30 रुपये ज्यादा मांग रहा था. स्टेशन पर रेट ऐसे भी थोडा ज्यादा होता है. मेरे
हामी भरने पर उसने मेरा बैगेज मेरे हाथ से ले लिया और तीन फर्लांग दूर सीढ़ी चढ़कर
अपने रिक्शा तक आ गया.
रिक्शे पर बैठा मैं उसे अहिस्ता और पैदल लोगों से बचाकर चलाने की हिदायत देने
लगा. साथ ही मैंने उसे पश्चिमी देशों की तमीज बतायी.
इनलोगों का हर रोज मेरे जैसे सैकड़ों से पाला पड़ता है. उसे मालूम था कि उन
देशों में पैदल लोगों को घायल करने पर बहुत बड़ा हर्जाना देना पड़ता है और यहाँ तो 100-200 में ही छुटकारा मिल जाता है.
मुझे लगा कि हमलोग कुछ ज्यादा ही भौतिकवादी हो गए है और वे लोग मानवतावादी. आज
हमारे देश में जब कोई साहबजादा फूटपाथ पर सोये लोगों को कुचलता है तो कहता है कि
फूटपाथ सोने की जगह नहीं है पर वह यह भूल जाता है की फूटपाथ शराब में धुत गाड़ी चलाने
की जगह भी नही है. अकाल मृत्यु में भारत में एक मुश्त कुछ दे-दिलाकर रफा-दफा कर
दिया जाता है जबकि पश्चिमी देशों में परिवार को बाकायदा रिहैबिलिटेट किया जाता है.
बहुत पहले मैंने शैलेन्द्र का एक गीत
सुना था “ ये पूरब है, पूरब वाले हर जान की कीमत जानते हैं “. क्या ये वही देश है
जहां मानवता की रक्षा के लिए लोग नीलकंठ बन जाते थे और ब्रह्मास्त्र का रुख निर्जन
हिमालय की तरफ मोड़ देते थे ?