Monday, December 21, 2015

मंजिल एक - मकसद एक !

कॉलेज जाते वक्त शहर के मशहूर काली मंदिर के मोड पर दोनों पैर से अपंग एक भिखारी को मैं कुछ भी पैसे जरूर देता था । इधर-उधर सरकने के लिए उसके हाथ में पहनने वाली चप्पल दिखती थी । बहुत संतोषी था । कभी पैसे नहीं रहने पर वह मुस्कुरा कर "कोई बात नहीं" कहता था । और तो और ,मेरे जानकार कहते हैं कि वे लोग जरूरत पड़ने पर उससे पैसे भी उधार लेते थे। एक दिन सुबह-सुबह, कॉलेज जाने के दरम्यान देखा कि वह रिक्शे से अपनी भीख मांगने वाली जगह पर उतर रहा था । कोई बात नहीं । भिखारी भी तो हम जैसे आदमी होते हैं । शौक हुआ होगा । बरसो बाद पता चला कि शहर में उसके 25 से ज्यादा रिक्शे चलते थे । यह भी कि वह सूद पर पैसे देता था । बाल-बच्चों वाला शादी-शुदा उसके तीन मकान थे । सबसे छोटे वाले में वह अपने परिवार की साथ रहता था । मौत के समय उसकी हैसियत करोड़ों की जरूर रही होगी । उसके बच्चे तो अब पढ़-लिख कर अच्छे ठिकानों पर होंगे पर हाय कोई उसे अपना बाप मानने को तैयार नहीं होता होगा । 

घर के गेट पर एक भिखमंगा आया करता था । लम्बा-चौड़ा, काला भुजंग, शरीर पर नाममात्र को कपडे और कंधे से लटकती झोली । आते ही गला फाड़कर आदिवासी भाषा में चिल्लाता था – हे मालिक-माई, भिक्का मिलोक नी ! 2-3 मिनटों बाद दुबारे चिल्लाता जोर से इतना कि घर के पिछवाड़े, जो कि काफी दूर था, आवाज़ चली जाये । उसके कुछ देर बाद भी अगर सुनवाई नहीं हुई तो अपनी भाषा में बुदबुदाने लगता था ।इसकी नौबत आये उसके पहले ही हममे से कोई दौड़कर उसे दान दे देते थे । आते-जाते, देखते सुनते , मैंने पाया कि वह कुछ ही घरों में जाया करता था भीख मांगने और वह भी तब जब उसके पास खाने को कुछ नहीं बचता था । कभी हफ्ते में दो बार कभी पखवारे में एक बार,उसकी भीख-यात्रा बहुत सीमित और कभी-कभी होती थी। पर मुझे ऐसे स्वस्थ का भीख मांगना नहीं भाता था । शायद दिमाग से हल्का या फिर कोई फ़क़ीर था या दोनों ही ।

1998 के बाद, कई वर्षों तक, मुझे रांची से मुंबई-पूना जाना पड़ता था वह भी वर्ष में दो-तीन बार । बच्चो की पढ़ाई और बाद में  उनकी नौकरी  कारण थी । तब राउरकेला स्टेशन पर ट्रेन की दो बोगी कटकर मुबई-हावड़ा मेल से जुडती थी । अब तो रांची से मुंबई और पुणे की डायरेक्ट ट्रेन हैं ।

उन दिनों के सफर की दो बातें कभी नहीं भूलेंगी । एक तो वह नवजवान जो चाय बेचता था । सलीके के कपड़ों में, अच्छी हिंदी बोलता हुआ, चाय बेचते समय वह हांक लगाता था – खराब चाय, ख़राब चाय !” उसकी चाय देखते-देखते बिक जाती थी । इलायचीदार चाय बेशक पीने लायक होती थी । दूसरा वह भीख मांगने वाला । एक पैर से लूला, आँखों पर काला चश्मा भी, शायद अंधापन छिपाने के लिए, देह पर मात्र बदबूदार काबुलीवाला लम्बा कुरता जो पूरे देह को ढंकने के लिए पर्याप्त । शरीर से एक् काठी का स्वस्थ और तीखे नाक-नक्शों वाला । आज के एक्टरों से तुलना करें तो करीबन नवाजुद्दीन सिद्दकी सा । बोगी में घुसते ही गधे से भी बेसुरे अंदाज में कोई फ़िल्मी भजन पूरे दम-खम के साथ रेंकता हुआ । उसके घुसते ही हमलोग सभी का हाथ पैन्ट की जेब में चला जाता था । किसी में उसे बर्दाश्त करने की हिम्मत नहीं होती थी । सोये हुए नींद से जागते ही नहीं थे कुछ न कुछ उसके हाथ पर दे देते थे । चायवाला उसके बाद आता था । ज्यादा बिक्री होती थी इसलिए ।

एक बार 2003 दिसम्बर में, मैं गीतांजलि से रांची लौट रहा था । सुबह 5 बजे राउरकेला स्टेशन उतरा । रांची जाने वाली ट्रेन आठ बजे आने वाली थी । वेटिंग हॉल में बेंच की पैर से लगेज को चेन व् ताले से सुरक्षित कर और अटेंडेंट को ताकीद कर मैं दाहिने तरफ प्लेटफार्म का अंत खोजने निकल पड़ा । उसके पहले ही एक छोटा अंडाकार पार्क दिख गया । छोटे-छोटे पेड़ और फूल के पौधों से भरा हुआ और अन्दर बेंच भी ।  सिगरेट पीने की बहुत ललक हो रही थी । प्लेटफार्म या स्टेशन परिसर में इसकी कानूनन मनाही हो चुकी थी । मैंने दो आदमकद पेड़ के बीच में छिपने की जगह ढूंढकर सिगरेट जला ली । अभी पौ फटने में देर थी । तभी बेंच के पास कुछ हलचल दिखी । एक मेरी उम्र का आदमी अपने अच्छे साफ़-सुथरे शर्ट पैंट उतारकर न जाने क्या कर रहा था । अभी भी अँधेरा था ही । मैं गौर से देखने लगा । चड्ढी पहने हुए वह बेंच पर किनारे बैठ गया । अपने एक पैर को घुटने से मोड़कर एक कपडे के पट्टे से उसने एकदम बाँध दिया । उसके बाद उसने एक लम्बा कुरता पहन लिया । अरे ! यह तो वही काबुलीवाला कुर्ता था । ये तो वही लंगड़ा-अँधा  भिखारी था ट्रेन वाला ।अपने उतारे हुए कपडे लपेट उसने कंधे से लटकते झोले में डाल लिया । उसने एक सिगरेट निकली, जलाई और बेंच में बैठ कर कश लेने लगा । मुझमे भी हिम्मत आ गयी । मैं उसके बगल में जाकर बैठ गया । उसने मुझे ऊपर से नीचे देखा । मेरी आधी से ज्यादा ख़त्म होती सिगरेट को देखा । हमदोनो ने एक दूसरे को समझ लिया था । मैंने एक दूसरी सिगरेट जला ली । मुझे ज्यादा मान-मुनव्वत करने की जरूरत नहीं पड़ी । ऐसे भी उसने बताया कि वह अब यह पेशा सदा के लिए छोड़कर रिटायरमेंट की जिंदगी बसर करने वाला था ।

वह बीए पास था । शादी-शुदा और दो लडकियां । किसी भी दिहाड़ी काम से घर का गुजारा नहीं हो रहा था । ट्रेन पर उसने अखबार,किताबें, और न जाने क्या-क्या बेचने का काम किया । वह अपनी लड़कियों को बेहतर शिक्षा और स्वावलंबी बनाने का ख्वाब संजोये हुए था। इस दरम्यान उसने देखा बिना किसी लागत के पैसा कमाने का तरीका । वह भी जितना चाहो उतना ।  हारकर नहीं बहुत समझ-बूझकर उसने ये पेशा अपनाया । उसके घर में सभी को ये मालूम था कि वह बंधी-बंधाई नौकरी पर है । राउरकेला-नागपुर लाइन पर उसके जानने वाले के मिलने की सबसे कम गुंजाईश थी । साथ ही, इस रूट पर रंगदारी भी कम थी । हाँ, कभी-कभी कंडक्टर, स्टेशन मास्टर को कुछ लेना-देना पड़ता था । रिटायरमेंट इसलिए कि बच्चे अब पूरी तरह सेटल कर गए थे पढ़-लिख कर । 

लौटते समय मैंने उससे हाथ मिलाया उसे यह जताने के लिए कि मुझे वह उन लोगो से अच्छा लग रहा था जो हारकर नाली के गंदे कीड़े- गुंडे/मवाली बन चुके थे या जीतकर पाप की दुनिया के कीड़े बनकर पूरे समाज और देश को बर्बाद कर रहे थे । मैंने मुस्कुराते हुए एक अंतिम प्रश्न पूछ ही लिया । वह इतना बेसुरा, भद्दा क्यों गाता था जबकि उसकी जुबान और रुझान दोनों में महीनीयत थी । वह हंसने लगा, पूछा क्या दिलीप कुमार की “राम और श्याम” फिल्म का वह सीन याद है जब राम या श्याम तुलसी रामायण बाख रहा था । कुछ देर तो हुई पर जब हँसे तो मिलकर हँसे और ठहाका लगाकर । 

हमलोग जीवन भर यही समझने में लगा देते हैं कि दुनिया ने हमें क्या दिया । अगर नवों दिशाओं आने वाली हवा अपना सम खो दे तो मनुष्य खड़ा भी न रह पायेगा। अगर सामने की  हवा गायब हुई तो वह औंधे मुंह गिरेगा.अगर पीछे से तूफानी हवा आयी तब भी। इसी तरह जीवन को भी अपने आस-पास के अपने जैसे लोग लोग सम्हालते हैं। इन्ही अपनों के चलते जीवन का सफ़र देखते-देखते कट जाता है।
आज सुबह आकाश में प्रवासी बत्तकों ( गीज़) की पंक्तिबद्ध कतारें देखते हुए मंजिल और मकसद की रवानगी पर विस्मय हो रहा है । कैसे उनकी तीर के नोक जैसी पंक्ति एक-दूसरे कि मदद करते इतनी दूर की यात्रा कर रही थी । अपने बच्चों को बेह्तर सुख-सुविधा देने की खातिर कितना कुछ दांव पर लगा रहे थे । चाहे पशु हों,पक्षी हो या आदमी हो ,कितनी समानता है !  हम मनुष्यों में भी । चाहे वह राजा हो,आम आदमी हो या फिर कोई और । उसकी  भी बरबस याद आ रही है । मुझे वह कभी रांची की सड़कों पर दिख जाता है, कभी मुंबई की लोकल में या फिर न्यूयॉर्क के सबवे में पर हमेशा पहुँच से दूर,बहुत दूर !.


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