Wednesday, March 27, 2013

संस्कार


कल शाम मैंने अपने दोमंजिले टैरेस से नीचे देखा. कोई सभ्रांत परिवार कुछ ब्राह्मण पंडितों को विदा कर रहे थे. लगता था कोई विशेष पूजा हुई थी क्योंकि पंडितों की संख्या पांच थी जिसमे एक सात-आठ वर्ष का बालक भी था. आनंद तो तब आया जब परिवार के बड़े-बूढों ने सबके साथ उस बालक को भी पैर छूकर विदाई दी.
मैं हमेशा की तरह कैम्पस के अंदर बने पार्क में टहलने आ गया. वहाँ वह् बालक पंडित भी पार्क में बने प्ले-स्टेशन में खेल रहा था. उसकी मुझसे नजर मिली. उसने कहा कि वह बगल के मंदिर में रहता है और उसे यह पार्क बहुत अच्छा लगा. उसने मुस्कुराते हुए यह भी कहा कि अब वह हर रोज इसी पार्क में खेलने आएगा. करीब आधे घंटे खेलने के बाद वह चला गया.
आज शाम को मैं पार्क में टहलने के बाद बेंच पर बैठा था. वह बालक पंडित नहीं दिखाई पड़ा. तभी मेरी श्रीमती भी आ गयी. वह कुछ दुखी लग रही थी.पूछने पर उसने बताया कि एक बच्चे को वाचमैन ने पार्क में खेलने से इसलिए रोक दिया कि वह इस एपार्टमेंट में नहीं रहता था.
शायद कुछ भी गलत नहीं हुआ था. पर उस लड़के के प्रारब्द्ध की दीवाल पर एक और ईंट जोड़ दी गयी थी. मै सोच रहा था कि वह लड़का भी एक दिन अपनी सोच के अनुसार इस समाज के साथ व्यवहार करेगा. 

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