Saturday, March 30, 2013

आप या हम


लगभग तीस वर्ष बाद इस बार पटना आने पर गंगा नदी देखने की इच्छा हुई. गंगा गन्दगी से घबरा कर किनारे से बहुत दूर चली गयी थी. मैं विषाद से भरा पश्चिम में दीघा घाट से बढ़ते-बढ़ते महेन्द्रू घाट तक चला आया जहां कभी चौबीसों घंटे स्टीमर और नाव से गंगा पार जाने वालों की बहार दिखती थी. मैं भौंचक सा अपने सामने सौ फीट चौड़े गंदे नाले को बहता देख रहा था. दूर एक बालू के टापू के पार नदी बहती दिख रही थी. तभी एक मल्लाह पीछे से गंगा में नहाने की बात कहने लगा. मैंने कहा कि आपलोगों ने गंगा को इतना गंदा कर दिया है कि क्या कोई नहायेगा.
मुस्कुराते हुए उस अनपढ़ गंवार से दिखने वाले मल्लाह ने कह दिया कि कम से कम आपलोग तो नहीं कहिये बल्कि हमलोग कहिये. पलक झपकते गंवार और अनपढ़ की परिभाषा बदल गयी !
मैं जो गन्दगी देख कर लौटा जा रहा था शर्मसार हो गया और बिना कोई मोल-तोल किये उसकी नांव पर बालू के टापू के पार जाने को तैयार हो गया. नांव पर सवार होने में मेरी श्रीमती को कठिनाई हो रही थी. तभी उसने दूसरा प्रक्षेपास्त्र फेंका. उसने कहा बेटा मान कर हाथ पकड़ लीजिए. उस मल्लाह का नाम महेश यादव था.

उस पार नहाने लायक स्वच्छ पानी बह रहा था. महेश ने श्रीमती के लिए गंगा स्नान का सुरक्षित इंतज़ाम कर दिया. मुझे ठन्डे पानी से बचना था पर उसने मेरा एक भी क्षण जाया नहीं होने दिया. वहीँ बालू के पाट में उसने प्राणायाम और योग के कुछ कठिन आसन दिखलाये. लौटते समय उसने मुझे नांव की पुरानी कील दी और बिना आग में तपाये अंगूठी बनाकर पहनने की सलाह दी.
उसकी दिलचस्प क्रियाकलाप, बातें और शेर मैंने यू-ट्यूब में डालने के लिए कैमरे में कैद कर ली. सड़क पर आकर मैंने एक रिक्शेवाले से राजेंद्र नगर ले जाने का भाड़ा पूछा. बढ़ी हुई दाढ़ी वाला पचपन वर्ष  जैसा दिखने वाला कोई पैंतीस वर्ष की उम्र वाले रिक्शेवाले ने कहा कि ऐसे तो भाड़ा तीस रुपये है पर कुछ मेहरबान चालीस रुपये भी दे देते हैं. रास्ते भर उसने फैले हुए भ्रष्टाचार पर अपनी पैनी प्रतिक्रिया सुनाई और उसका अंत करते हुए भरी हुई बीच सड़क में मुझसे पूछा कि क्या मुझे उस भीड़ में कोई भी ईमानदार नजर आ रहा है.
ज्यादातर मुझे मेरे जैसे ही लोग दिख रहे थे. मैंने इतनी जल्दीबाजी में बिना किसी के बारे में जाने कुछ कहने में अपनी असमर्थता दिखाई. रिक्शेवाले ने असमंजस से दूर किया. उसने कहा, “ हम देखिये ! ” सत्य में रिक्शा चलाकर रोजी-रोटी कमाने वाले से ज्यादा ईमानदारी का काम क्या हो सकता है.
राजेन्द्र नगर अब राजधानी पटना का एक समृद्ध इलाका हो गया था. गगनचुम्बी इमारतें, इम्पोर्टेड कार की होड़ उसका बदलता हस्ताक्षर था. पर गन्दगी, पानी की किल्लत और बेतहाशा पेड़ों को काटकर हाथ आई बेतहाशा गर्मी अच्छी कालिख पोत रही थी काले धन की वैभवता पर. हमलोगों की एक अहम् कमजोरी है. हमलोग सदैव अपने को ईमानदार मानकर दूसरों को सैधांतिक/सापेक्षिक ईमानदारी की कसौटी पर कसते रहते है चाहे वह मनमोहन हो या अन्ना या फिर पड़ोस का मुरारी लाल ! 
इस पाटलिपुत्र में कुछ तो दम जरूर है जिसने बुद्ध, महावीर, गुरु गोविन्द, अशोक, चंद्रगुप्त, राजेंद्र प्रसाद,
लालू, नटवर लाल, भिखारी ठाकुर, महेश यादव और माजिद रिक्शेवाले को एक उपजाऊ मानसिक धरती दी. और न जाने कितने मुरारी लाल गुमनामी में खो गए उनमें दो की तो मुझे याद है, पहला रामानुग्रह नारायण सिंह और दूसरा वशिष्ठ नारायण सिंह.


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