लगभग तीस वर्ष बाद इस बार पटना आने पर गंगा नदी देखने की इच्छा हुई. गंगा
गन्दगी से घबरा कर किनारे से बहुत दूर चली गयी थी. मैं विषाद से भरा पश्चिम में
दीघा घाट से बढ़ते-बढ़ते महेन्द्रू घाट तक चला आया जहां कभी चौबीसों घंटे स्टीमर और
नाव से गंगा पार जाने वालों की बहार दिखती थी. मैं भौंचक सा अपने सामने सौ फीट
चौड़े गंदे नाले को बहता देख रहा था. दूर एक बालू के टापू के पार नदी बहती दिख रही
थी. तभी एक मल्लाह पीछे से गंगा में नहाने की बात कहने लगा. मैंने कहा कि आपलोगों
ने गंगा को इतना गंदा कर दिया है कि क्या कोई नहायेगा.
मैं जो गन्दगी देख कर लौटा जा रहा था शर्मसार हो गया और बिना कोई मोल-तोल किये
उसकी नांव पर बालू के टापू के पार जाने को तैयार हो गया. नांव पर सवार होने में
मेरी श्रीमती को कठिनाई हो रही थी. तभी उसने दूसरा प्रक्षेपास्त्र फेंका. उसने कहा
बेटा मान कर हाथ पकड़ लीजिए. उस मल्लाह का नाम महेश यादव था.
उस पार नहाने लायक स्वच्छ पानी बह रहा था. महेश ने श्रीमती के लिए गंगा स्नान
का सुरक्षित इंतज़ाम कर दिया. मुझे ठन्डे पानी से बचना था पर उसने मेरा एक भी क्षण
जाया नहीं होने दिया. वहीँ बालू के पाट में उसने प्राणायाम और योग के कुछ कठिन आसन
दिखलाये. लौटते समय उसने मुझे नांव की पुरानी कील दी और बिना आग में तपाये अंगूठी
बनाकर पहनने की सलाह दी.
उसकी दिलचस्प क्रियाकलाप, बातें और शेर मैंने यू-ट्यूब में डालने के लिए कैमरे
में कैद कर ली. सड़क पर आकर मैंने एक रिक्शेवाले से राजेंद्र नगर ले जाने का भाड़ा
पूछा. बढ़ी हुई दाढ़ी वाला पचपन वर्ष जैसा
दिखने वाला कोई पैंतीस वर्ष की उम्र वाले रिक्शेवाले ने कहा कि ऐसे तो भाड़ा तीस
रुपये है पर कुछ मेहरबान चालीस रुपये भी दे देते हैं. रास्ते भर उसने फैले हुए भ्रष्टाचार
पर अपनी पैनी प्रतिक्रिया सुनाई और उसका अंत करते हुए भरी हुई बीच सड़क में मुझसे
पूछा कि क्या मुझे उस भीड़ में कोई भी ईमानदार नजर आ रहा है.
इस पाटलिपुत्र में कुछ तो दम जरूर है जिसने बुद्ध, महावीर, गुरु गोविन्द, अशोक, चंद्रगुप्त, राजेंद्र प्रसाद,
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