Friday, March 29, 2013

कर्मण्येवाधिकारस्ते…


कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥२-४७॥


Your right is only to perform your duty, but never to its results (fruits). Let not the results be your motive, nor you be indolent. 

Lesson: Perform your duty with a mind free from the anxieties of fruits of action. Neither you be indolent nor consider yourself as the cause ( agent) of results.
तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में कभी नहीं। इसलिए तू कर्मों के फल हेतु मत हो तथा तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो। ॥४७॥
जब से मैंने होश संभाला है, गीता का यह उपदेश किसी न किसी से सुनने को मिलता रहा है. मुझे इसका अर्थ व् भाव भी समझाने का प्रयत्न भी होता रहा. जहां भी इस का अर्थ और इस उपदेश को अमल में लाने का तरीका समझाया जाता, मैं बड़े मनन के साथ उसे समझने का प्रयत्न करता. जो भी किताब मिली उसे पढ़ा. आज तक न मैं इसे ठीक से समझ पाया और न मुझे ऐसे लोग मिले जो इसका अनुसरण करते हों. मेरे युग में इस श्लोक को आत्मसात करने वाले दो-तीन कर्मयोगी दिखे- विवेकानंद, गाँधी और टेरेसा. पर क्या इन महान विभूतियों को फल की आशा नहीं थी ? अगर सत्य में नहीं थी तो जो फल इन्हें मिला वह अभूतपूर्व था.
ऐसा नही कि मैंने इस उपदेश पर अमल करने का प्रयत्न नहीं किया. किसी साथी को किसी प्रकार की सहायता की आवश्यकता होती और मेरे बस का होता जो मैं अवश्य करता.
जब मैं दस वर्ष का था तो मैंने बड़े मनोयोग से लट्टू खरीदने के लिए २० पैसे इकट्ठे किये थे. स्कूल से लौटते वक्त मेरे दोस्त के पेट में जोरो का दर्द उठा. मैंने उन पैसों से उसे रिक्शे में बिठाकर घर पहुंचाया. ये तो शुरुआत थी. बाद में यह भाव तरह-तरह से प्रगट होने लगा. बीमार साथियों की हर संभव मदद करना, किसी के मांगने पर उधार पैसा दे देना और कभी भी उसकी ताकीद नहीं करना, मिल-बाँट कर खाना या कभी खुद भूखे रहकर किसी को खिलाना और विशेषकर मृतकों की अंत्येष्टि में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेना इत्यादि. पर सदैव यह भावना मन में अवश्य आती कि इन सबों का फल मुझे मिलेगा.
बहुत बाद में मुझे इस उपदेश को अमल में लाने का एक रास्ता नजर आया. मैं एक दोपहिये स्कूटर से आना-जाना करता था. जब भी मुझे कोई दीखता तो उसको मैं लिफ्ट अवश्य देता. इसे बाद में, मैंने थोडा और परिष्कृत कर दिया. जब कभी भी कोई अनजान दीखता तो मैं उसे अपने स्कूटर से उसे उसके गंतव्य तक पहुंचा देता चाहे इसके लिए मुझे एक-दो मील रास्ते से अलग ही क्यों न जाना पड़े. ऐसा लगता था कि मैं उस श्लोक को कुछ-कुछ समझने लगा था. आज जब मैं पैसठ वर्ष का हो गया हूँ जो अंत की एक शुरुआत है तब गीता के उपदेश का भाव कुछ ज्यादा समझ में आ रहा है जो शायद अभी  भी सत्य से काफी परे हो. मुझे अपने जीवनकाल का दो-तीन वाकया याद आया रहा है जो शायद आपके भी काम आ सके.
मेरी राव से दोस्ती नौकरी में आने के चंद दिनों बाद ही हो गयी थी. मैं बहुत ही खुशकिस्मत था कि मुझे एक ऐसा दोस्त मिला जो बहुत मायनों में मुझसे कहीं बेहतर था. राव सबों की मदद करने में सदैव तत्पर रहता था. अपना भोजन बाँट कर खाना, बीमार पड़ने पर सेवा करना और हमेशा हँसते रहना उसकी आदत थी. उसने मुझे आगे पढने में, मेरी बहनों की शादी में और बहुत सारे कार्यों में हमेशा मदद की. उसके एवज में मैं उसके लिए बहुत कम कर पाता. बहुत बाद में मुझे एक मौक़ा मिला. उसे कम्पनी की तरफ से रहने को घर नहीं मिला था. वह भी इसलिए की वह तिकडमबाज नहीं था. वह अत्यंत परेशानी में था क्योंकि मकान-मालिक ने घर खाली करने का अल्टीमेटम दे दिया था और उसकी श्रीमती को बच्चा होने वाला था. मैंने दिन-रात एक करके उसे उसकी पसंद का घर आवंटित करवाया.
एक बार मैं अपने कार्यस्थल जाने के लिए जैसे ही स्कूटर से हाईवे पर आया, एक तीस वर्ष के युवक को सड़क के किनारे ब्रीफकेस के साथ परेशान सा खडा देखा. मैंने स्कूटर रोक कर उसे बिठा लिया और उसे उसके गंतव्य तक पहुंचा दिया. यह आवश्यक था. उसका मेरी कम्पनी में ही इंटरव्यू था और उसे समय पर पहुँचना था.
ऐसे ही एक बार जब मैं हाई वे पर आया तो एक हमउम्र अनजान को स्कूटर ठीक करता पाया. मैं भी उसकी मदद में जुट गया. करीब आधे घंटे मशक्कत के बाद पता चला की उसकी गाडी में पेट्रोल ही नहीं था. मैं अपने स्कूटर की डिकी में एक ट्यूब रखता था जिससे मैंने उसके स्कूटर में आधा लीटर पेट्रोल डाल दिया.
कोई तीस साल बाद मुझे श्वांस सम्बन्धी बीमारी ने परेशान करना शुरू किया. कई डॉक्टरों को दिखाया. अंत में किसी के कहने पर मैं मशहूर कार्डियोलोजिस्ट डा० भट्टाचार्य के पास गया. वे मेरी कंपनी के अस्पताल से रिटायर हुए थे. चूँकि मैं कभी गंभीर रूप से बीमार नहीं पड़ा था इसलिए नौकरी के दरम्यान अस्पताल जाने की नौबत नहीं आई थी और इन डाक्टर से वास्ता नहीं पड़ा था. पहले ही दिन डा० ने लम्बी लाइन तोड़कर मुझे अन्दर बुला लिया. मैं भौचक था. मैंने पूछा भी कि बिना जान-पहचान के उन्होंने मेरी इतनी इज्जत-अफजाई क्यों की. उन्होंने बताया की वे मुझे बहुत अच्छी तरह जानते थे. उस दिन उन्हें अगर स्कूटर से अस्पताल जाने में थोड़ी और देर होती तो किसी की जान जा सकती थी.
इसी तरह, जब मैं रिटायर हुआ तो सबसे बड़ी परेशानी यह थी की कंपनी के मकान का जल्दी से जल्दी हैण्ड ओवर कैसे किया जाये. कुछ नहीं तो दस-बारह दिन की दौड़-धूप आम बात थी साथ में छोटी-छोटी बातों पर पेनल्टी. मेरे साथ भी किरानी बाबू ने ऐसी ही शुरुआत की. मैं खींज कर उसके चीफ से मिलने पंहुंचा. मैं जैसे ही उसके कमरे में दाखिल हुआ, वह एस्टेट ऑफिसर कुर्सी से उठ खड़ा हुआ. वह वही शख्स था जिसे मैंने समय पर इंटरव्यू के लिए पहुंचाया था.
उस दिन राव को मकान आवंटन का आर्डर दिलवाकर जून की दोपहरी में जैसे ही घर लौटा, मेरे ताले लगे दरवाजे पर एक सरकारी लिफाफा खोंसा हुआ था. मेरी श्रीमती बच्चों के साथ मायके गयी हुई थी. लिफाफा खोला तो पाया की मुझे सरकार ने शहर के सबसे अच्छे इलाके में आठ डेसीमल जमीन लाटरी से आवंटित किया था. 

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