हम पांच बच्चों के पास कुल पांच आने (आज का पच्चीस पैसा) थे । पिकनिक के बारे में हमलोग बहुत सुनते थे । एक दिन मौका मिल ही गया । चौराहे के बनिए ने सूजी, चीनी और देसी घी थमाते हुए सुझाया - कुम्हरार चले जाओ पिकनिक करने ।
वहां टूटे अशोक स्तम्भ की छाया में, सूखे पत्तों की आग में हमलोगों ने लपसीनुमा हलवा बनाया और खाया भी।
नियमित खाना बनाने का बीजमंत्र बाबूजी ने दिया । नौकरी लगने के बाद जब अकेले रहने की नौबत आयी तब उन्होंने कहा - स्वस्थ रहना है तो खुद खाना बनाना ।और कैटेलिटिक सहायता हमलोगों के सीनियर सतीश मित्तल मेहरोत्रा ने दी । वे मुझे और मेरे हमउम्र बैचलर आर्य समायजुला लक्ष्मण राओ को छुट्टियों के दिन घर पर कुकिंग सिखाने आ जाया करते थे । मैंने ताउम्र सेलिब्रेशन के मौकों पर ही होटल का खाना खाया ।
शायद आखिरी हथौड़ा फ़िल्म "बावर्ची" ने लगाया । नायक को खाना बनाकर खिलाने में बेइंतिहा आनंद मिलता था । इसके एक डायलाग ने मेरे जीवन में कुछ बदलाव तो अवश्य लाया - "किसी बड़ी ख़ुशी के इंतज़ार में हम ये छोटी छोटी खुशियों के मौके खो देते हैं."
शादी के बाद भी मैं अपनी श्रीमती को आराम देने की खातिर ज्यादातर जब घर में मेहमान आते थे किचन में सहयोग देने घुस जाया करता । इस प्रवृति को धक्का तब लगा जब उन्होंने मेरे दोस्त से मेरे सामने शिकायत की कि मैं उन्हें लज्जित करने के लिए ऐसा करता हूँ । यह अवधारणा तब ख़त्म हुई जब वे काफी दिनों के लिये बिमारे-बिस्तर हो गयीं ।
लोगबाग मेरे बनाये खाने की फ़रमाईश करने लगे । मैं चाहे जैसा भी खाना बनाऊं लोग तारीफ़ ही करते । मुझे लगता वैसा ही जैसा मित्र की कविताओं की ।
बहुत दिनों तक तो मुझे लगा कि मुझे बेबकूफ़ बनाया जा रहा है । मेहमान जिनके पास निगलने के सिवा कोई चारा न रहता है, लोगबाग जिन्हें मुझसे पार्टी लेनी है और उनकी औरतें जो बेगारी से निजात चाहती हैं ।
मुझे ज्यादा लोगों के लिए भोजन बनाना बहुत बाद में आया । अब तो मेरी बनायी नॉन वेज बिरयानी कभी-कभी मुझे भी लाजवाब कर देती है ।आनंद तब आता है जब घर के अंदर पैर रखते ही लोग फ़ैली खुशबू की तारीफ़ करने लगते है और जब पूरी बिरयानी सफाचट हो जाती है । इसके सिवा मेरे पास और दूसरी कसौटी भी तो नहीं है ।
मैं बरसों से गंधहीनता(Anosmia) और कुछ हद तक स्वादहीनता(olfactory) से ग्रसित हूँ ।
वहां टूटे अशोक स्तम्भ की छाया में, सूखे पत्तों की आग में हमलोगों ने लपसीनुमा हलवा बनाया और खाया भी।
नियमित खाना बनाने का बीजमंत्र बाबूजी ने दिया । नौकरी लगने के बाद जब अकेले रहने की नौबत आयी तब उन्होंने कहा - स्वस्थ रहना है तो खुद खाना बनाना ।और कैटेलिटिक सहायता हमलोगों के सीनियर सतीश मित्तल मेहरोत्रा ने दी । वे मुझे और मेरे हमउम्र बैचलर आर्य समायजुला लक्ष्मण राओ को छुट्टियों के दिन घर पर कुकिंग सिखाने आ जाया करते थे । मैंने ताउम्र सेलिब्रेशन के मौकों पर ही होटल का खाना खाया ।
शायद आखिरी हथौड़ा फ़िल्म "बावर्ची" ने लगाया । नायक को खाना बनाकर खिलाने में बेइंतिहा आनंद मिलता था । इसके एक डायलाग ने मेरे जीवन में कुछ बदलाव तो अवश्य लाया - "किसी बड़ी ख़ुशी के इंतज़ार में हम ये छोटी छोटी खुशियों के मौके खो देते हैं."
शादी के बाद भी मैं अपनी श्रीमती को आराम देने की खातिर ज्यादातर जब घर में मेहमान आते थे किचन में सहयोग देने घुस जाया करता । इस प्रवृति को धक्का तब लगा जब उन्होंने मेरे दोस्त से मेरे सामने शिकायत की कि मैं उन्हें लज्जित करने के लिए ऐसा करता हूँ । यह अवधारणा तब ख़त्म हुई जब वे काफी दिनों के लिये बिमारे-बिस्तर हो गयीं ।
लोगबाग मेरे बनाये खाने की फ़रमाईश करने लगे । मैं चाहे जैसा भी खाना बनाऊं लोग तारीफ़ ही करते । मुझे लगता वैसा ही जैसा मित्र की कविताओं की ।
बहुत दिनों तक तो मुझे लगा कि मुझे बेबकूफ़ बनाया जा रहा है । मेहमान जिनके पास निगलने के सिवा कोई चारा न रहता है, लोगबाग जिन्हें मुझसे पार्टी लेनी है और उनकी औरतें जो बेगारी से निजात चाहती हैं ।
मुझे ज्यादा लोगों के लिए भोजन बनाना बहुत बाद में आया । अब तो मेरी बनायी नॉन वेज बिरयानी कभी-कभी मुझे भी लाजवाब कर देती है ।आनंद तब आता है जब घर के अंदर पैर रखते ही लोग फ़ैली खुशबू की तारीफ़ करने लगते है और जब पूरी बिरयानी सफाचट हो जाती है । इसके सिवा मेरे पास और दूसरी कसौटी भी तो नहीं है ।
मैं बरसों से गंधहीनता(Anosmia) और कुछ हद तक स्वादहीनता(olfactory) से ग्रसित हूँ ।
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