Sunday, April 14, 2013

पूरब और पश्चिम !


"Many people still have this crude notion that the West is materialistic, and the East is spiritual.  By ‘West’, they particularly point towards the United States, England, France, etc., as these countries are rich, and by ‘East’ they mean themselves, Indians. Indians are spiritual, and the ‘westerners’ are materialistic. Especially so, for those who have not gone out of India, or have just gone as tourists, Times have changed, and our ideas should change. The world is one now and the problems are the same everywhere." - Swami Vivekanand

स्वामी विवेकानंद ने आज से सौ वर्ष पहले यह कहा था की जब पूर्व पश्चिम की भौतिकतावाद और पश्चिम पूर्व की आध्यातिक्मता को समिश्रित कर लेगा तब सत्य में एकात्मकता का सृजन होगा. काश ! इस पृथ्वी के 1000 करोड़ आबादी में कोई भी दो मनुष्य एक जैसी सोच रखता. मेरी सोच भी शायद कुछ भिन्न ही होगी.
पश्चिमी देशों में या यों कहिये विकसित देशों में 95% लोगों के पास मोटर कार हैं. सड़कें एक क्षण भी अकेली नहीं होतीं हैं. पर जब भी कोई पैदल सड़क पार करना चाहता है तब कारें रूकती ही नहीं है बल्कि उनमें बैठा शख्स मुस्कुराते हुए इशारे से सड़क पार करने का आग्रह करता दिखता है. अमेरिका में दायीं तरफ की ड्राइव होने के कारण मुझसे सड़क पार करने में अक्सर गलती हो जाती थी. पर कारें रूकती ही नहीं थी बल्कि इतने हौले से रूकती थीं कि मुझे सुनाई भी नहीं पड़ता था. क्या ये वही देश हैं जहां कुछ दशक पहले काउ-बॉयज की बहुतायत होती थी जो घोड़े पर ही दिखाई देते थे और बात-बात पर गोलियां चलाते थे. फिल्मों में सबसे ज्यादा तालियाँ “When shoot, shoot don’t talk !“ पर बजती थीं.
भारत जैसे विकासशील देशों में ऐसा कम देखने को मिलता है. यहाँ के लोग पब्लिक ट्रांसपोर्ट पर ज्यादा निर्भर हैं. छोटे शहरों और कस्बों में ऑटो रिक्शा का बोलबाला है. इनके चालकों को केवल सवारी या बॉडी दिखती है. थोड़ी सी गफलत हुई और चोट पहुंची. पर यहाँ भी भातिकतावादी में अध्यात्म का मिश्रण दिखता है. चाहे आप कितनी भी दूर हों, अगर चालक को बॉडी दिख गयी तो वह घरघराती रिक्शा खड़ी कर आपका इन्तेजार करेगा चाहे बाकि बैठे यात्री कितना भी तिलमिलाएं.
कैरी ऑन व्हिल्ड लगेज को प्लेटफार्म की सीढियां चढाने में मुझे परेशानी होती है. ट्रेन से यह सोचते उतर रहा था कि भले कुली 100-150 मांगे, मुझसे ये न ढोया जायेगा. तभी एक ऑटो रिक्शा वाला प्लेटफार्म पर मेरे पास आया. उसने मुझसे पांच किलोमीटर दूर मेरे निवास के 120 रुपये मांगे. वह 20-30 रुपये ज्यादा मांग रहा था. स्टेशन पर रेट ऐसे भी थोडा ज्यादा होता है. मेरे हामी भरने पर उसने मेरा बैगेज मेरे हाथ से ले लिया और तीन फर्लांग दूर सीढ़ी चढ़कर अपने रिक्शा तक आ गया.
रिक्शे पर बैठा मैं उसे अहिस्ता और पैदल लोगों से बचाकर चलाने की हिदायत देने लगा. साथ ही मैंने उसे पश्चिमी देशों की तमीज बतायी.
इनलोगों का हर रोज मेरे जैसे सैकड़ों से पाला पड़ता है. उसे मालूम था कि उन देशों में पैदल लोगों को घायल करने पर बहुत बड़ा हर्जाना देना पड़ता है और यहाँ तो 100-200 में ही छुटकारा मिल जाता है.

मुझे लगा कि हमलोग कुछ ज्यादा ही भौतिकवादी हो गए है और वे लोग मानवतावादी. आज हमारे देश में जब कोई साहबजादा फूटपाथ पर सोये लोगों को कुचलता है तो कहता है कि फूटपाथ सोने की जगह नहीं है पर वह यह भूल जाता है की फूटपाथ शराब में धुत गाड़ी चलाने की जगह भी नही है. अकाल मृत्यु में भारत में एक मुश्त कुछ दे-दिलाकर रफा-दफा कर दिया जाता है जबकि पश्चिमी देशों में परिवार को बाकायदा रिहैबिलिटेट किया जाता है.  
बहुत पहले मैंने  शैलेन्द्र का एक गीत सुना था “ ये पूरब है, पूरब वाले हर जान की कीमत जानते हैं “. क्या ये वही देश है जहां मानवता की रक्षा के लिए लोग नीलकंठ बन जाते थे और ब्रह्मास्त्र का रुख निर्जन हिमालय की तरफ मोड़ देते थे ? 

 

Saturday, April 13, 2013

The Longest Dawn !

In general, the length of a day varies throughout the year, and depends upon latitude. This variation is caused by the tilt of the Earth's axis of rotation with respect to the ecliptic plane of the Earth around the sun. At the solstice occurring about June 20–22, the north pole is tilted toward the sun, and therefore the northern hemisphere has days ranging in duration from just over 12 hours in the southern portion of the Tropic of Cancer to 24 hours in the Arctic Circle, while the southern hemisphere has days ranging in duration from just under 12 hours in the northern portion of the Tropic of Capricorn to zero in the Antarctic Circle.



I find the nature at its best when I behold a sunrise or a Sunset from wherever I am. The location may be anywhere in the world. It may be my bedroom window, a non-descript street disappearing at a blank canvas either in the East to greet the rising Sun or in the West to greet or bid adieu to the setting Sun.
I remember when I was a child; I used to get up early in the morning to see the Sun rising from the Far East where the street closed at the park end. At that age, the Sunset used to be a sorry affair for me as I had to return back after playing.
Early in my college career, I had the opportunity to visit Netarhaat some 150 KM West of Ranchi(Jharkhand, India). This place was at a height of over 1000 meter and was famous for witnessing Sunrise and Sunset particularly in the summer. I remember that we perched on the roof of the bus two hours before the sunrise. Every moment was beyond description. I saw shades of color that I had never seen before either in my spectroscopy periods or anywhere in a movie. Every second of the 2x60x60 second had a distinctly different landscape; from dark to indigo to purple and so on. It is surprising that till now no professional video is available on the Utube. The ones that I have uploaded are from some non-descript camera.
My rendezvous with Netarhaat in 1963 enabled me to make up my mind, to pass my best time with the beautiful Sun when it rises and when it sets. At Ranchi, The highest point from my residence was the hillock over which the Jagannath temple was situated. This 100 meter high hillock was four kilometer from my house. The distance was perfect for my morning walk. I used to reach the top of the hillock well before the Sunrise.
My unending tryst with the life giving Sun kept on peaking. Last year, I was in Baldivis (Perth, Western Australia). I never missed a day unless it was highly overcast. The place has a clear blue sky with the long distance of distinct vision extending to the infinity where the Sun peeps up from beyond the mountain range or dips down over the Ocean. The jewel in the crown was the Cape Peron where tourists flock to witness the Sunset over the Ocean.
As if, the nature wished me to hint that I have not even watched a small minuscule of what it has to offer, I was forced to sit in the middle column of the airline that was carrying me to New York from Mumbai. The flight took off at 2130 IST. It was a 20 hours flight which flew over Moscow, Helsinki, Berlin, and London before landing at JFK at 0730 hrs.(New York time).
Somewhere above Moscow , from the distant side window at the left , I found the  wings of the aircraft splashed with crimson red indicating that the Sun was about to rise. To my utter surprise, this state of the morning remained at it was until we entered the US territory some time at 0600 hrs.( Local time).
It was to be the longest sunrise that I ever got a glimpse of.  At around 800 KMH the aircraft (Boing 777) had a race with the darkness at its tail and dawn at its nose. Perhaps, the view on the Moon and on satellites in geo-stationary orbits would provide a more fascinating looksee.
How is it that nobody has thought of putting this marvel of the on the internet or more specifically in websites such as Utube for others to know, learn and savor for eternity?
marvels


Tuesday, April 9, 2013

संस्कारहीन

अमेरिकन वीसा बनवाते समय ही यह पता लग गया था कि मुझे तरह-तरह की सिक्यूरिटी चेकिंग से गुजरना पड़ेगा. ११/९ के बाद ऐसा बिलकुल ठीक था. पर सबकुछ इतना कुछ होते हुए भी बहुत अच्छे से और तेजी कार्यवायी हो रही थी.  कहीं कोई परेशानी नहीं हुई. लगता था जैसे हर समय और अच्छा करने की कोशिश होती रह्ती है.  इसीलिए 2-3 हजार की पंक्ति दो घंटे के अन्दर बड़ी आसानी से निबटा ली जाती थी.
अंत में, एअरपोर्ट से निकलने के पहले की इमिग्रेशन चेकिंग मुझे कुछ ज्यादा ही आतंकित किये हुए था. पंक्ति में मेरा स्थान चौथा था. क्यूबिकल में बैठने के लिए जेम्स बांड सरीखा एक नवयुवक मेरे पास से गुजरा. उसके होल्स्टर में एक भारी रिवाल्वर थी. बैठने की बाद उसने अपनी निगाहें लगी पंक्ति की ओर डालीं. उसकी निगाहों में अहंकार की भरपूर झलक थी. पहले नम्बर पर एक 25-30 वर्ष की नवयुवती थी. उसने इशारे से उसे खिड़की के पास आने को कहा. मॉनिटर पर पहले से पूरा विवरण था. उससे मुस्कुरा कर बातें की और दो मिनटों में क्लीयरेंस दे दी.
अब मैं पंक्ति में तीसरे नंबर पर था. मैं सोच रहा था कि ऐसे ही किसी शख्स ने शाहरुख खान और हमारे राष्ट्रपति श्री कलाम की क्लास ली होगी. मेरे आगे  श्रीलंका के नव-दम्पति थे. खिड़की के पास पहुंचते ही दोनों ने तेज़ आवाज़ में ऑफिसर को ग्रीट किया. शायद उनकी तेज़ आवाज़ ने या उनलोगों ने कुछ ऐसा जवाब दिया की बात बनती नहीं दिखी. पूरे दस मिनट साक्षात्कार चला. इसी बीच ऑफिसर ने हमारी ओर देख कर मुंह बिचकाया पर मेरे पीछे खड़ी लड़की को देखकर मुस्कुराया. मैंने भी पीछे मुड़कर देखा. एक बहुत ही खूबसूरत लड़की भड़कीले पहनावें में खड़ी दिखी. ऑफिसर में अथॉरिटी के साथ सस्तापन साफ़ झलक रहा था. मुझे अपने यहाँ के सिपाही और क्लर्क याद आ गए.
जैसा मैंने अनुमान लगाया था, कारण बिलकुल अलग था पर हमलोगों को क्लीयरेंस देने में उसे दो मिनट भी नहीं लगा. आगे बढ़ते समय मैं सोच रहा था की जरूर शाहरुख ने अपना एटीच्युड दिखाया होगा और स्मार्ट बनने की कोशिश की होगी. 
पर श्री कलाम ? जब मेरे जैसे साधारण व्यक्ति का पूरा ब्यौरा उनलोगों ने लिया था तो श्री कलाम तो एक महान देश के महान राष्ट्रपति थे और न जाने कितनी बार एक अति विशिष्ट व्यक्तित्व की हैसियत से अमेरिका आयें होंगे. अमेरिका यह कहकर कदापि अपनी सफाई नहीं दे सकता है की वह श्री कलाम को नहीं जानता था.. ऐसा कहना उनके जांच प्रणाली पर एक बेहूदा कलंक होगा.
ये ना तो एटीच्युड और न पर्सनालिटी क्लैश था ! एक सीधे सादे, महान व्यक्तित्व और काफी बुजुर्ग के साथ एक संस्कारहीन की बदसलूकी और बदतमीजी थी.
अब समय आ गया है कि किसी को जिम्मेवारी देने के पहले उस व्यक्ति को भली-भांति जान लिया जाये चाहे वह जिम्मेवारी व्यक्तिगत हो, सामाजिक हो अथवा सरकारी.
अभी डी०एन०ए० और जेनेटिक्स इंप्रिंट को मात्र बायोलॉजिकल ब्योरा जानने के लिए ही इस्तेमाल किया जा रहा है  भविष्य में यह व्यक्तित्व की गुणवत्ता मापने  का अचूक जरिया बन सकेगा.  तब यह भष्ट्राचार से लड़ने का एक अमोघ अस्त्र भी हो सकेगा.

Thursday, April 4, 2013

चीनी ज्यादा !


 बनारसी पान का लुत्फ़ तब ज्यादा मिलता है जब लखनवी अंदाज में पेश किया जाये और खानेवाला कोई सूरमा भोपाली हो. लखनऊ की मस्जिद गली चौक पर बनारसी पान की दुकान पर खाने और मुस्कुराने वाले आते जाते रहते. उनमे एक मौलवी साहब भी थे जो एक दिन बीच कर तशरीफ़ लाते थे. बहुत व्यस्त हो ऐसी बात नहीं पर कंजूसी में वाकई सूरमा थे. बिचारा बनारसी पान तो मुंह में डालते ही गलने लगता है . पर उस एक पान की गिलौरी को भी मौलवी बहुत सहेज की मुंह में दबाते और दूसरे दिन सुबह मुंह धोते वक्त बड़ी मजबूरी से उसकी बची निशानी को कचरे के डिब्बे में जाने देते.
एक दिन पान वाले ने कह ही दिया : हुज़ूर! कैंसर हो जायेगा. इतनी कंजूसी भी ठीक नहीं. लोग-बाग जाने क्या-क्या कहते हैं.” बस, मौलवी साहब खफा हो गए. दस दिन तक पान की दूकान पर नहीं आये.
एक सुबह, एक लीटर वाली प्लास्टिक की बोतल में कुछ लबालब भरकर हाथ में झुलाते-दिखाते  उधर से निकल रहे थे. एक दम साफ़ था . बोतल में कुछ दमदार तो जरूर था जिसे दिखाकर अपनी कंजूसी पर लगा दाग मिटाना चाह रहे हों. पान वाले के पूछने पर उन्होंने तपाक से बताया जैसे बताने को काफी बेकरार हो. बोले-“मियाँ ! डाक्टर के पास जा रहा हूँ अपना पेशाब जांच करवाने. कम ले जाता तो कहते यहाँ भी मैंने कंजूसी कर दी.”
दिन निकलते उन्हें भरी हुई बोतल के साथ लौटते देख पान वाले ने पूछ ही लिया कि क्या जांच नहीं हुई . मौलवी ने झेपते हुए जवाब दिया,” जांच बखूबी हुई. डॉक्टर ने कहा है कि इसमें बहुत ज्यादा शुगर है. मुझे दस चम्मच के बजाय केवल एक चम्मच लेने को कहा है.”
पान वाले को उस समय तो कुछ भी समझ में नहीं आया कि आखिर भरी हुई बोतल वे लौटा के क्यों ले जा रहे थे . सुबह चाय पीते वक्त उसे बात समझ में आई और साथ ही बड़े जोरों की उलटी आ गयी. 

सौजन्य : लक्ष्मी 

Wednesday, April 3, 2013

देखन में छोटन लगे !


आज बहुत दिनों के बाद फुर्सत से बालाजी हेयर कटिंग सैलून वाले ने मेरी हजामत बनायीं. लोकल बॉडी टैक्स लगने के चलते पूना की सभी दुकानें बंद थीं. मेरे पूछने पर उसने बताया कि उसे भी दो लोग बंद करने को कह गए हैं. उसने बताया कि यहाँ भाऊ लोगों का तो डर नहीं है पर तरीके-तरीके से हाथ उमेठा जाता है. साल में 15-20 हज़ार चंदे में ही निकल जाते हैं. उसने यह भी बताया कि महीने में सब दे-लेकर 25-30 हज़ार की आमदनी हो जाती है. इतना तो यहाँ के एम०बी०ए० पास ई-क्लर्क का टेक-होम वेतन भी नही होगा.
मैं थोड़ा भी आश्चर्यचकित नहीं था. अभी कुछ दिन पहले में चेम्बूर से लोकल पकड़ने के पहले चाय पीने स्टाल पर गया. वहाँ एक बैसाखी वाले भिखारी ने काउंटर पर अपनी झोली उड़ेल रखी थी. करीब 3-4 किलो रेजगारी थी जिसमें पांच का सिक्का कम से कम 200 के आस-पास रहा होगा. चाय वाले ने बताया कि उस भिखारी की एक दिन की कमाई 5000 रुपये है. महीने का 1.5 लाख तो IIM वालों को ही मिलता है.
बहुत पहले मैं यह सब सुनकर भौचक रह जाता था , अब नहीं. जब 2000 में में पहली बार पूना आया था तब यहाँ लोग सड़क या पब्लिक प्लेस में सिगरेट पीना बंद कर चुके थे. मुझे भी जब सिगरेट पीना होता तो सड़क के स्टाल पर ही खड़े होकर पी लेता था.
सामने सड़क के पार, एक बहुमंजिला अपार्टमेंट बन रहा था. यकीनन , 4 करोड से ऊपर का प्रोजेक्ट लग रहा था. मैं हरदम उसे ललचाई दृष्टि से देखता था. काश, इसमें मेरी बेटी एक फ्लैट ले लेती. मैंने चौरसिया पान-सिगरेट बेचने वाले से वहाँ फ्लैट की कीमत जाननी चाही. उसने बताया कि यहाँ 2BHK की कीमत 10-15 लाख के आसपास है. जो सड़क और बाजार के आसपास हैं उनकी कीमत ज्यादा है. उसने मुझे कहा कि अगर फ्लैट लेना हो तो वह मेरी मदद कर सकता है. मैंने उसे बताया कि अगर मुझे फ्लैट लेना होगा तो उस सामने वाले बनते हुए में ही लेना चाहूँगा. उसने कहा कि तब तो आपका काम और आसान हो गया वह बनता एपार्टमेंट मेरा ही है.

Saturday, March 30, 2013

आप या हम


लगभग तीस वर्ष बाद इस बार पटना आने पर गंगा नदी देखने की इच्छा हुई. गंगा गन्दगी से घबरा कर किनारे से बहुत दूर चली गयी थी. मैं विषाद से भरा पश्चिम में दीघा घाट से बढ़ते-बढ़ते महेन्द्रू घाट तक चला आया जहां कभी चौबीसों घंटे स्टीमर और नाव से गंगा पार जाने वालों की बहार दिखती थी. मैं भौंचक सा अपने सामने सौ फीट चौड़े गंदे नाले को बहता देख रहा था. दूर एक बालू के टापू के पार नदी बहती दिख रही थी. तभी एक मल्लाह पीछे से गंगा में नहाने की बात कहने लगा. मैंने कहा कि आपलोगों ने गंगा को इतना गंदा कर दिया है कि क्या कोई नहायेगा.
मुस्कुराते हुए उस अनपढ़ गंवार से दिखने वाले मल्लाह ने कह दिया कि कम से कम आपलोग तो नहीं कहिये बल्कि हमलोग कहिये. पलक झपकते गंवार और अनपढ़ की परिभाषा बदल गयी !
मैं जो गन्दगी देख कर लौटा जा रहा था शर्मसार हो गया और बिना कोई मोल-तोल किये उसकी नांव पर बालू के टापू के पार जाने को तैयार हो गया. नांव पर सवार होने में मेरी श्रीमती को कठिनाई हो रही थी. तभी उसने दूसरा प्रक्षेपास्त्र फेंका. उसने कहा बेटा मान कर हाथ पकड़ लीजिए. उस मल्लाह का नाम महेश यादव था.

उस पार नहाने लायक स्वच्छ पानी बह रहा था. महेश ने श्रीमती के लिए गंगा स्नान का सुरक्षित इंतज़ाम कर दिया. मुझे ठन्डे पानी से बचना था पर उसने मेरा एक भी क्षण जाया नहीं होने दिया. वहीँ बालू के पाट में उसने प्राणायाम और योग के कुछ कठिन आसन दिखलाये. लौटते समय उसने मुझे नांव की पुरानी कील दी और बिना आग में तपाये अंगूठी बनाकर पहनने की सलाह दी.
उसकी दिलचस्प क्रियाकलाप, बातें और शेर मैंने यू-ट्यूब में डालने के लिए कैमरे में कैद कर ली. सड़क पर आकर मैंने एक रिक्शेवाले से राजेंद्र नगर ले जाने का भाड़ा पूछा. बढ़ी हुई दाढ़ी वाला पचपन वर्ष  जैसा दिखने वाला कोई पैंतीस वर्ष की उम्र वाले रिक्शेवाले ने कहा कि ऐसे तो भाड़ा तीस रुपये है पर कुछ मेहरबान चालीस रुपये भी दे देते हैं. रास्ते भर उसने फैले हुए भ्रष्टाचार पर अपनी पैनी प्रतिक्रिया सुनाई और उसका अंत करते हुए भरी हुई बीच सड़क में मुझसे पूछा कि क्या मुझे उस भीड़ में कोई भी ईमानदार नजर आ रहा है.
ज्यादातर मुझे मेरे जैसे ही लोग दिख रहे थे. मैंने इतनी जल्दीबाजी में बिना किसी के बारे में जाने कुछ कहने में अपनी असमर्थता दिखाई. रिक्शेवाले ने असमंजस से दूर किया. उसने कहा, “ हम देखिये ! ” सत्य में रिक्शा चलाकर रोजी-रोटी कमाने वाले से ज्यादा ईमानदारी का काम क्या हो सकता है.
राजेन्द्र नगर अब राजधानी पटना का एक समृद्ध इलाका हो गया था. गगनचुम्बी इमारतें, इम्पोर्टेड कार की होड़ उसका बदलता हस्ताक्षर था. पर गन्दगी, पानी की किल्लत और बेतहाशा पेड़ों को काटकर हाथ आई बेतहाशा गर्मी अच्छी कालिख पोत रही थी काले धन की वैभवता पर. हमलोगों की एक अहम् कमजोरी है. हमलोग सदैव अपने को ईमानदार मानकर दूसरों को सैधांतिक/सापेक्षिक ईमानदारी की कसौटी पर कसते रहते है चाहे वह मनमोहन हो या अन्ना या फिर पड़ोस का मुरारी लाल ! 
इस पाटलिपुत्र में कुछ तो दम जरूर है जिसने बुद्ध, महावीर, गुरु गोविन्द, अशोक, चंद्रगुप्त, राजेंद्र प्रसाद,
लालू, नटवर लाल, भिखारी ठाकुर, महेश यादव और माजिद रिक्शेवाले को एक उपजाऊ मानसिक धरती दी. और न जाने कितने मुरारी लाल गुमनामी में खो गए उनमें दो की तो मुझे याद है, पहला रामानुग्रह नारायण सिंह और दूसरा वशिष्ठ नारायण सिंह.


Friday, March 29, 2013

कर्मण्येवाधिकारस्ते…


कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥२-४७॥


Your right is only to perform your duty, but never to its results (fruits). Let not the results be your motive, nor you be indolent. 

Lesson: Perform your duty with a mind free from the anxieties of fruits of action. Neither you be indolent nor consider yourself as the cause ( agent) of results.
तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में कभी नहीं। इसलिए तू कर्मों के फल हेतु मत हो तथा तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो। ॥४७॥
जब से मैंने होश संभाला है, गीता का यह उपदेश किसी न किसी से सुनने को मिलता रहा है. मुझे इसका अर्थ व् भाव भी समझाने का प्रयत्न भी होता रहा. जहां भी इस का अर्थ और इस उपदेश को अमल में लाने का तरीका समझाया जाता, मैं बड़े मनन के साथ उसे समझने का प्रयत्न करता. जो भी किताब मिली उसे पढ़ा. आज तक न मैं इसे ठीक से समझ पाया और न मुझे ऐसे लोग मिले जो इसका अनुसरण करते हों. मेरे युग में इस श्लोक को आत्मसात करने वाले दो-तीन कर्मयोगी दिखे- विवेकानंद, गाँधी और टेरेसा. पर क्या इन महान विभूतियों को फल की आशा नहीं थी ? अगर सत्य में नहीं थी तो जो फल इन्हें मिला वह अभूतपूर्व था.
ऐसा नही कि मैंने इस उपदेश पर अमल करने का प्रयत्न नहीं किया. किसी साथी को किसी प्रकार की सहायता की आवश्यकता होती और मेरे बस का होता जो मैं अवश्य करता.
जब मैं दस वर्ष का था तो मैंने बड़े मनोयोग से लट्टू खरीदने के लिए २० पैसे इकट्ठे किये थे. स्कूल से लौटते वक्त मेरे दोस्त के पेट में जोरो का दर्द उठा. मैंने उन पैसों से उसे रिक्शे में बिठाकर घर पहुंचाया. ये तो शुरुआत थी. बाद में यह भाव तरह-तरह से प्रगट होने लगा. बीमार साथियों की हर संभव मदद करना, किसी के मांगने पर उधार पैसा दे देना और कभी भी उसकी ताकीद नहीं करना, मिल-बाँट कर खाना या कभी खुद भूखे रहकर किसी को खिलाना और विशेषकर मृतकों की अंत्येष्टि में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेना इत्यादि. पर सदैव यह भावना मन में अवश्य आती कि इन सबों का फल मुझे मिलेगा.
बहुत बाद में मुझे इस उपदेश को अमल में लाने का एक रास्ता नजर आया. मैं एक दोपहिये स्कूटर से आना-जाना करता था. जब भी मुझे कोई दीखता तो उसको मैं लिफ्ट अवश्य देता. इसे बाद में, मैंने थोडा और परिष्कृत कर दिया. जब कभी भी कोई अनजान दीखता तो मैं उसे अपने स्कूटर से उसे उसके गंतव्य तक पहुंचा देता चाहे इसके लिए मुझे एक-दो मील रास्ते से अलग ही क्यों न जाना पड़े. ऐसा लगता था कि मैं उस श्लोक को कुछ-कुछ समझने लगा था. आज जब मैं पैसठ वर्ष का हो गया हूँ जो अंत की एक शुरुआत है तब गीता के उपदेश का भाव कुछ ज्यादा समझ में आ रहा है जो शायद अभी  भी सत्य से काफी परे हो. मुझे अपने जीवनकाल का दो-तीन वाकया याद आया रहा है जो शायद आपके भी काम आ सके.
मेरी राव से दोस्ती नौकरी में आने के चंद दिनों बाद ही हो गयी थी. मैं बहुत ही खुशकिस्मत था कि मुझे एक ऐसा दोस्त मिला जो बहुत मायनों में मुझसे कहीं बेहतर था. राव सबों की मदद करने में सदैव तत्पर रहता था. अपना भोजन बाँट कर खाना, बीमार पड़ने पर सेवा करना और हमेशा हँसते रहना उसकी आदत थी. उसने मुझे आगे पढने में, मेरी बहनों की शादी में और बहुत सारे कार्यों में हमेशा मदद की. उसके एवज में मैं उसके लिए बहुत कम कर पाता. बहुत बाद में मुझे एक मौक़ा मिला. उसे कम्पनी की तरफ से रहने को घर नहीं मिला था. वह भी इसलिए की वह तिकडमबाज नहीं था. वह अत्यंत परेशानी में था क्योंकि मकान-मालिक ने घर खाली करने का अल्टीमेटम दे दिया था और उसकी श्रीमती को बच्चा होने वाला था. मैंने दिन-रात एक करके उसे उसकी पसंद का घर आवंटित करवाया.
एक बार मैं अपने कार्यस्थल जाने के लिए जैसे ही स्कूटर से हाईवे पर आया, एक तीस वर्ष के युवक को सड़क के किनारे ब्रीफकेस के साथ परेशान सा खडा देखा. मैंने स्कूटर रोक कर उसे बिठा लिया और उसे उसके गंतव्य तक पहुंचा दिया. यह आवश्यक था. उसका मेरी कम्पनी में ही इंटरव्यू था और उसे समय पर पहुँचना था.
ऐसे ही एक बार जब मैं हाई वे पर आया तो एक हमउम्र अनजान को स्कूटर ठीक करता पाया. मैं भी उसकी मदद में जुट गया. करीब आधे घंटे मशक्कत के बाद पता चला की उसकी गाडी में पेट्रोल ही नहीं था. मैं अपने स्कूटर की डिकी में एक ट्यूब रखता था जिससे मैंने उसके स्कूटर में आधा लीटर पेट्रोल डाल दिया.
कोई तीस साल बाद मुझे श्वांस सम्बन्धी बीमारी ने परेशान करना शुरू किया. कई डॉक्टरों को दिखाया. अंत में किसी के कहने पर मैं मशहूर कार्डियोलोजिस्ट डा० भट्टाचार्य के पास गया. वे मेरी कंपनी के अस्पताल से रिटायर हुए थे. चूँकि मैं कभी गंभीर रूप से बीमार नहीं पड़ा था इसलिए नौकरी के दरम्यान अस्पताल जाने की नौबत नहीं आई थी और इन डाक्टर से वास्ता नहीं पड़ा था. पहले ही दिन डा० ने लम्बी लाइन तोड़कर मुझे अन्दर बुला लिया. मैं भौचक था. मैंने पूछा भी कि बिना जान-पहचान के उन्होंने मेरी इतनी इज्जत-अफजाई क्यों की. उन्होंने बताया की वे मुझे बहुत अच्छी तरह जानते थे. उस दिन उन्हें अगर स्कूटर से अस्पताल जाने में थोड़ी और देर होती तो किसी की जान जा सकती थी.
इसी तरह, जब मैं रिटायर हुआ तो सबसे बड़ी परेशानी यह थी की कंपनी के मकान का जल्दी से जल्दी हैण्ड ओवर कैसे किया जाये. कुछ नहीं तो दस-बारह दिन की दौड़-धूप आम बात थी साथ में छोटी-छोटी बातों पर पेनल्टी. मेरे साथ भी किरानी बाबू ने ऐसी ही शुरुआत की. मैं खींज कर उसके चीफ से मिलने पंहुंचा. मैं जैसे ही उसके कमरे में दाखिल हुआ, वह एस्टेट ऑफिसर कुर्सी से उठ खड़ा हुआ. वह वही शख्स था जिसे मैंने समय पर इंटरव्यू के लिए पहुंचाया था.
उस दिन राव को मकान आवंटन का आर्डर दिलवाकर जून की दोपहरी में जैसे ही घर लौटा, मेरे ताले लगे दरवाजे पर एक सरकारी लिफाफा खोंसा हुआ था. मेरी श्रीमती बच्चों के साथ मायके गयी हुई थी. लिफाफा खोला तो पाया की मुझे सरकार ने शहर के सबसे अच्छे इलाके में आठ डेसीमल जमीन लाटरी से आवंटित किया था. 

Wednesday, March 27, 2013

संस्कार


कल शाम मैंने अपने दोमंजिले टैरेस से नीचे देखा. कोई सभ्रांत परिवार कुछ ब्राह्मण पंडितों को विदा कर रहे थे. लगता था कोई विशेष पूजा हुई थी क्योंकि पंडितों की संख्या पांच थी जिसमे एक सात-आठ वर्ष का बालक भी था. आनंद तो तब आया जब परिवार के बड़े-बूढों ने सबके साथ उस बालक को भी पैर छूकर विदाई दी.
मैं हमेशा की तरह कैम्पस के अंदर बने पार्क में टहलने आ गया. वहाँ वह् बालक पंडित भी पार्क में बने प्ले-स्टेशन में खेल रहा था. उसकी मुझसे नजर मिली. उसने कहा कि वह बगल के मंदिर में रहता है और उसे यह पार्क बहुत अच्छा लगा. उसने मुस्कुराते हुए यह भी कहा कि अब वह हर रोज इसी पार्क में खेलने आएगा. करीब आधे घंटे खेलने के बाद वह चला गया.
आज शाम को मैं पार्क में टहलने के बाद बेंच पर बैठा था. वह बालक पंडित नहीं दिखाई पड़ा. तभी मेरी श्रीमती भी आ गयी. वह कुछ दुखी लग रही थी.पूछने पर उसने बताया कि एक बच्चे को वाचमैन ने पार्क में खेलने से इसलिए रोक दिया कि वह इस एपार्टमेंट में नहीं रहता था.
शायद कुछ भी गलत नहीं हुआ था. पर उस लड़के के प्रारब्द्ध की दीवाल पर एक और ईंट जोड़ दी गयी थी. मै सोच रहा था कि वह लड़का भी एक दिन अपनी सोच के अनुसार इस समाज के साथ व्यवहार करेगा. 

Friday, January 18, 2013

Old Is Gold: Make Yourself Useful


After I drifted  into the other side of age, I have added a compulsory morning walk to my daily schedule. It provides me with much needed fresh air, exercise and some sun. It also lays before me some glimpses that I had never encountered before.  Every morning, I see a different Sun rising in an equally magnificent horizon. I hear enchanting voices of birds. The flowers feel better in exhaling various shades of fragrances.  I see persons  older and frailer than me enjoying their health walk and discussing whatnots.
One morning, on my way back, I found two elderly persons exchanging notes. One was asking the other about his stay and experience in the States. The other elderly seemed to have returned back to his native place after months.  The reply appalled me. The gentleman was complaining that he had been treated as a servant by his son and daughter in law. He said that he was forced to look after the laundry. He had to babysit which included nappy change. He was persuaded to undertake routine errands to the local market. The sad narration went on until it faded due to lengthening distance between us.  
The first thought that came to my mind was that the whining old man did not love anybody but himself. He was one of the same kind as myself; a common man. He must have led a life similar to me. He must have good and bad experience of life in equal measure.
Right from when we were born, we are either compromising or surrendering to the state of affairs. The universal law is that no one can move on a frictionless surface. Atmospheric air pressure from all the sides is necessary to keep one erect. The universe has originated from imperfection. The synonym of perfection might be the God divine himself.
First ten years, we are at the mercy of our parents and guardians who generally take good care. After that it is either the teachers or the bullying lad in the neighborhood. Thereafter, we become servants of the employer always adhering to the principle that the boss is always right. We shall ever remain  a servant of the nature as it controls everything including the air that we breathe.
We take care and bring up our children to the best of our ability. Children are our showcase. Remember how we coax our tiny tots to sing nursery rhymes before the guests. We never blinked when it came to nappy changing etc.
It is a fact that persons feel at a loss when they are relieved from routine gainful employment. It is a fact that aged persons need their near and dear to tend them when such need arises. It is true that there is a generation gap. It is also a truth that nobody stops such an old man to remain a useful person.
If nappy change distresses a grandparent then he must wait for the day when their children or an entirely unknown nurse in the intensive care unit would do the same for him.
I remember that most of the time my teenage children neglected home made food and went for fast food at the corner. Now, should not we be pleased to find that they tend to like food prepared by their parents after they come tired from their work place like sailors from a high sea.
An old man is left with a bundle of newspapers  and an idiot box for the entire day after the young ones leave for their routine schedule. Would it not be great and refreshing to take care of the laundry caressingly? If you are lucky then there could be flower pots or the entire garden to tend to.
Here is an opportunity to exhibit your culinary expertise you always craved for. Begin with salad dressing and reach to the delightful heights of kebabs and Biryani. You could avail all the assistance from hundreds of websites. And yes, be computer savvy. It would open up a vast infinite world of knowledge and information before you.
I spent six months in Australia with my daughter and son in law. One day, my son in law opened the lunch box in his workplace cabin. The aroma of chicken Biryani sucked in his colleagues in an instant. All had a taste of it. They did not stop at that. They poured down to our home the subsequent weekend to have a stomach full with thorough washings in between. I shall savor that day forever.
You have been always craving for the true love and affection that you perhaps received when you were in the cradle. Those days have come again. I did not comprehend why my grandchildren love me very much until I read somewhere that they are more attached to those who attend to their nappy (distress) call.  
The confluence of three generations that is yesterday, today  and tomorrow is what this life is about. They are made for each other. Remove any one of them and there would be a void,  a big black hole.
Life is beautiful. You are useful until you rest in peace.